तीन शरीर

वेदांत दर्शन के अनुसार, मानव जीवन को तीन शरीर के माध्यम से समझा जाता है: स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर

मनु समृति मैं कहा गया है की “शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्” मतलब शरीर ही सारे कर्तव्यों को पूरा करने का एकमात्र साधन है। इसलिए शरीर को स्वस्थ रखना बेहद आवश्यक है, क्योंकि सारे कर्तव्य और कार्यों की सिद्धि इसी शरीर के माध्यम से ही होनी है। जब हम वेदों में “शरीर” की चर्चा करते हैं, तो यह मुख्य रूप से भौतिक और अध्यात्मिक दोनों दृष्टिकोणों से देखा जाता है। वेदों में, शरीर को जीवात्मा का वाहन माना जाता है, जो अनंत और अविनाशी है, जबकि शरीर नाशवान है।

सामवेद मैं कहा गया है “इन्द्र॑ त्रि॒धातु॑ शर॒णं त्रि॒वरू॑थं स्वस्ति॒मत्” मतलब शरीर को वात, पित और कफ तीन धातु वाला बताया गया है तथा स्थूल, सूक्षम और कारण तीन आवरणों वाला बताया गया है।

तीन शरीर

मानव जीवन मैं तीनो शरीर बहुत महत्वपूर्ण हैं, स्थूल शरीर को जो प्राण मतलब ऊर्जा मिलती है वो सूक्षम शरीर से मिलती है और सूक्षम शरीर को जो ऊर्जा मिलती है वो कारण शरीर से मिलती है। तो आइये अब तीनो शरीर को अच्छे से समझते हैं ।

1). स्थूल शरीर (Gross Body):स्थूल शरीर वह भौतिक शरीर है जिसे हम अपनी आंखों से देख सकते हैं और स्पर्श कर सकते हैं। स्थूल शरीर का मुख्य कार्य जीवन के विविध क्रियाकलापों में भाग लेना है, जैसे खाना-पीना, सोना, चलना-फिरना और अन्य शारीरिक गतिविधियाँ। स्थूल शरीर सपतधातु से निर्मित होता है जिसमे आता है रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र। धातु का मतलब होता है जो शरीर को धारण करता है। हम जो भोजन करते हैं उससे रस बनता है और उसी रस से रक्त बनता है, उस रस से मांस, मांस से मेद, मेद से अस्थि, अस्थि से मज्ज, मज्ज से शुक्र।

तीन शरीर

 

  • रस (Plasma): रस शरीर के शीर्षक तंतु का रूप में पाया जाता है, और यह शरीर के सभी कोषिकाओं को पोषित करने में मदद करता है।
  • रक्त (Blood): रक्त शरीर के लिए जीवनमहत्वपूर्ण है, क्योंकि यह ऑक्सीजन और पोषण सभी शरीर के अंगों तक पहुंचाता है।
  • मांस (Muscle): मांस शरीर की ऊर्जा की आवश्यकताओं को पूरा करने में मदद करता है और शरीर की चाल को संभालता है।
  • मेद (Fat): मेद शरीर की ऊर्जा राशि को बनाने और संरक्षित करने में मदद करता है, और यह शरीर की स्थिति और तापमान को भी नियंत्रित करता है।
  • अस्थि (Bone): अस्थि शरीर के संरचनात्मक स्थिरता का सारंश होते हैं और हड्डियों की निर्माण में मदद करते हैं।
  • मज्जा (Marrow): मज्जा अस्थियों के अंदर पाया जाता है और नयी कोषिकाओं की उत्पत्ति में मदद करता है।
  • शुक्र (Reproductive Tissue): शुक्र शरीर के प्रजनन तंतु को संदर्भित करता है और उत्पन्न करने में मदद करता है।

यह स्थूल शरीर पाँच महाभूतों से बना है – पृथ्वी, जल, वायु, आग और आकाश। ये पाँच महाभूत स्थूल शरीर की विविधता और संरचना को प्रकट करते हैं।

तीन शरीर

  • पृथ्वी (Earth): पृथ्वी भूमि का तत्व है, और यह स्थूल शरीर की ठोसता और दृढ़ता का प्रतीक होता है। शरीर की आपूर्ति की दृढ़ता और स्थिरता के लिए पृथ्वी महत्वपूर्ण है।
  • जल (Water): जल स्थूल शरीर में जीवन की अग्रणी शक्ति है, क्योंकि यह शरीर के सभी कार्यों के लिए आवश्यक है, जैसे कि पाचन, रक्त संचालन, और ऊर्जा प्रबंधन।
  • वायु (Air): वायु शरीर में श्वासन और प्राणसंचालन के लिए महत्वपूर्ण है। यह ऑक्सीजन को अंतर्गत करने में मदद करता है और शरीर के समग्र तंतुओं को पोषण पहुंचाने में भी सहायक होता है।
  • आग (Fire): आग शरीर की ऊर्जा को बढ़ावा देती है और शरीर के कार्यों को चलाने में मदद करती है, जैसे कि श्वासन और शरीर के उत्सर्जन की प्रक्रियाएँ।
  • आकाश (Ether or Space): आकाश शरीर के अंदर और बाहर के तंतुओं के बीच के संचालन के लिए महत्वपूर्ण होता है। यह शरीर के विभिन्न भागों को एक साथ बाँधने में मदद करता है और संवादिक और ऊर्जात्मक प्रक्रियाओं को संचालित करता है।

हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म के सिद्धांत के अनुसार, आत्मा या जीवात्मा कई जीवनों में पुनर्जन्म करती है, और हर जन्म में वह नए शरीर में प्रवेश करती है। यह सिद्धांत इस धारणा का हिस्सा है कि स्थूल शरीर पूर्व के जीवनों के कर्मों और उपासनाओं के आधार पर मिलता है।

स्थूल शरीर आत्मा का भोगायतन होता है, इस पर विचार और धारणा कई धार्मिक और आध्यात्मिक दर्शनिक परंपराओं में किया जाता है। इन परंपराओं के अनुसार, आत्मा या जीवात्मा अपने स्थूल शरीर के माध्यम से संसार के भोगों का अनुभव करती है और विभिन्न जीवन की प्राप्तियों और अनुभवों का अनुभव करती है। इस प्रतिस्थापन के सिद्धांत का मतलब है कि हमारा स्थूल शरीर जीवात्मा का एक प्रकार का अवास होता है, जिसके माध्यम से हम इस भौतिक जगत में अनुभव करते हैं, सीखते हैं, और अपने कर्मों के फल को भोगते हैं। यह सिद्धांत अध्यात्मिक धारणाओं का हिस्सा है और यह धारणा करता है कि आत्मा या जीवात्मा अनंतरात्मा होती है जो इस शारीरिक जीवन में अनुभव करने के लिए यहां आती है।

जब मौत होती है, स्थूल शरीर मृत हो जाता है। इसके बाद, यह शरीर प्रकृति में विघटित होकर मिल जाता है। स्थूल शरीर अन्ततः नश्वर है। इसका मतलब है कि इसे मृत्यु के बाद तोड़ा जा सकता है। अध्यात्मिक दृष्टिकोण से, यह समझना महत्वपूर्ण है कि स्थूल शरीर केवल एक अस्थायी वाहन है, जबकि आत्मा शाश्वत है।

इस प्रकार, स्थूल शरीर वह भौतिक यात्रा है जिसे हम अपने जीवन में अनुभव करते हैं, लेकिन इसके पीछे अधिक गहरी और अध्यात्मिक सत्य हैं जिन्हें हमें समझने की कोशिश करनी चाहिए।

2). सूक्ष्म शरीर (Subtle Body): सूक्ष्म शरीर वह भाग है जो हमारे भौतिक शरीर के अदृश्य होता है और यह हमारी भावनाओं, विचारों, और प्राणिक ऊर्जा से संबंधित है। जबकि हमारा स्थूल शरीर (भौतिक शरीर) मृत्यु के बाद नष्ट हो जाता है, सूक्ष्म शरीर मृत्यु के बाद भी बना रहता है और पुनर्जन्म के संसार में चला जाता है। सूक्ष्म शरीर का समझना अध्यात्मिक उन्नति में महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह हमें जीवन की गहराईयों और माया की समझ में मदद करता है। यदि हम सूक्ष्म शरीर को सही तरीके से पहचानते हैं और इसे नियंत्रित करते हैं, तो हम अध्यात्मिक रूप से उन्नत हो सकते हैं।

हिंदू दार्शनिक और आध्यात्मिक परंपरा के अनुसार, सूक्ष्म शरीर 17 घटकों से मिलकर बना माना गया है। ये 17 घटक निम्नलिखित हैं:

तीन शरीर

  • पंच ज्ञानेन्द्रियां (Five Sense Organs): हिंदू दार्शनिक और आध्यात्मिक परंपरा में वह पाँच इंद्रियां हैं जिनका उपयोग हम बाहरी जगत को अनुभव करने में करते हैं। यह इंद्रियां हमें पाँच प्रकार की भौतिक जानकारियां प्रदान करती हैं। इन पाँच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से हम अपने चारों ओर के वातावरण को समझते हैं और उससे जुड़ते हैं। ये ज्ञानेन्द्रियां हमें बाहरी जगत से जुड़ने का माध्यम प्रदान करती हैं और हमें उससे संवाद साधने में मदद करती हैं। ये पंच ज्ञानेन्द्रियां हैं:
    • श्रोत्र (Ear, अणुभव: शब्द) : श्रोत्र ज्ञानेन्द्रिय वायु तत्व से संबंधित है। यह हमें विभिन्न प्रकार के ध्वनियों को सुनने की क्षमता प्रदान करता है।
    • त्वच (Skin, अणुभव: स्पर्श) : त्वच हमें ठंडा, गर्म, मुलायम, कठोर आदि प्रकार के स्पर्श को महसूस करने की क्षमता प्रदान करती है। यह वायु तत्व से संबंधित है।
    • चक्षु (Eyes, अणुभव: रूप) : चक्षु हमें विभिन्न रंग, आकृतियां, और दृश्यों को देखने की क्षमता प्रदान करती है। यह अग्नि तत्व से संबंधित है।
    • जिव्हा (Tongue, अणुभव: रस) : जिव्हा हमें खाद्य पदार्थों के विभिन्न स्वाद, जैसे मधुर, कटु, लवण, आदि को महसूस करने की क्षमता प्रदान करती है। यह जल तत्व से संबंधित है।
    • घ्राण (Nose, अणुभव: गंध) : घ्राण ज्ञानेन्द्रिय हमें विभिन्न प्रकार की सूख्ष्म से सूख्ष्म गंधों को संवेदन करने की क्षमता प्रदान करती है। यह पृथ्वी तत्व से संबंधित है।
  • पंच कर्मेन्द्रियां (Five Action Organs): हिन्दू धार्मिक और आध्यात्मिक शास्त्रों में, पाँच कर्मेन्द्रियां वह पाँच इंद्रियां हैं जिनका उपयोग हम बाहरी जगत में क्रियावली (एक्शन) में लेने के लिए होता है। यह पाँच कर्मेन्द्रियां हमें वातावरण से संवाद साधने में मदद करती हैं और हमें उसमें सक्रिय रूप से प्रतिसाद देने की क्षमता प्रदान करती हैं। इनका मुख्य उद्देश्य हमें जीवन के दैनिक क्रियाकलापों में सहायक होना है। ये हमें जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सक्रियता और समर्थ बनाए रखते हैं। ये पंच कर्मेन्द्रियां हैं:
    • वाक् (Speech, कार्य: वाणी) : वाक् इंद्रिय हमें अपने विचार और भावनाओं को शब्दों के माध्यम से प्रकट करने की क्षमता प्रदान करती है।
    • पाणि (Hand, कार्य: ग्रहण) : पाणि हमें वस्त्रादि पकड़ने, वस्त्र पहनने, लिखने और अन्य बाहरी क्रियावली में सहायक होते हैं।
    • पाद (Feet, कार्य: चालन) : पाद हमें स्थल परिवर्तन की क्षमता प्रदान करते हैं, अर्थात एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने में सहायक होते हैं।
    • पायु (Excretory Organ, कार्य: मलत्याग) : पायु हमें शरीर के अवशेष और अनावश्यक पदार्थों को बाहर निकालने में सहायक होते हैं।
    • उपस्थ (Reproductive Organ, कार्य: जनन) : उपस्थ हमें प्रजनन की क्षमता प्रदान करते हैं, और जीवन की जाती-प्रजाती को आगे बढ़ाने में सहायक होते हैं।

 

  • मन (Mind): यह सूक्ष्म शरीर का एक मुख्य घटक है, जो ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के साथ मिलकर व्यक्ति की अंतरात्मा के संवेदन और प्रतिक्रिया को संचालित करता है। मन व्यक्ति को अनुभव कराने वाला तत्व है। यह बाहरी जगत से जानकारी ग्रहण करता है और उसे समझता है। मन भावनाओं का स्थल है। खुशी, दुःख, भय, आशा, ईर्ष्या, मोह आदि सभी भावनाएँ मन में ही उत्पन्न होती हैं। मन हमें विचार करने की क्षमता प्रदान करता है। यह हमें विभिन्न विकल्पों में से चयन करने में सहायक होता है। मन हमें बाहरी जगत के साथ संचार साधने में मदद करता है और यह हमारी अंतरात्मा के संवाद का माध्यम भी है। मन पिछले अनुभवों को संजोता है और उन्हें पुनः प्रस्तुत करता है जब जरूरत होती है। मन का नियंत्रण और स्थिरता पाना योग की एक मुख्य धारा है। पतंजलि के योगसूत्र में कहा गया है, “योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः”, जिसका अर्थ है कि योग मन की चंचलता को निरोधित करने की प्रक्रिया है। जब मन शांत होता है, तो व्यक्ति अपने अध्यात्मिक स्वरूप का अनुभव कर सकता है।

 

  • बुद्धि (Intellect): यह सूक्ष्म शरीर का एक अभिन्न अंग है और व्यक्ति की निर्णय-क्षमता, विचार-शक्ति और अभिज्ञान का स्रोत है। बुद्धि व्यक्ति को सही और गलत में भेद बताने में मदद करती है। यह ज्ञान को प्राप्त करती है और उसे अनुशासन में लाने में मदद करती है। बुद्धि एक विचारक और समझाने वाली शक्ति है, जो ज्ञान के अधिगम की प्रक्रिया में सहायक होती है। बुद्धि व्यक्ति को मार्गदर्शन प्रदान करती है, जिससे वह सही पथ पर चल सकता है। भारतीय दार्शन में बुद्धि को परिष्कृत और सुधारित करने के लिए विभिन्न योग और साधना की प्रक्रियाओं की सिफारिश की गई है। जब बुद्धि शुद्ध होती है, तो यह व्यक्ति को अधिकांश परिस्थितियों में सही निर्णय लेने में मदद करती है और अंत में आत्म-साक्षात्कार की ओर मार्गदर्शन करती है।

 

  • अहंकार (Ego): अहंकार, जिसे हिंदी में “मैं-भाव” भी कहा जाता है, हमारी व्यक्तित्व का वह अंग है जो खुद को पहचानता है और खुद को अन्य से अलग महसूस करता है। अहंकार हमें खुद को महत्वपूर्ण महसूस कराता है, और यह हमें हमारे काम और क्रियावलियों में प्रोत्साहित करता है। अहंकार हमें हमारे स्वीकृति, सम्मान, और पहचान के लिए दूसरों से प्रतिस्थापन और पुष्टि प्राप्त करने में मदद करता है। अहंकार हमें हमारे विचारों, आस्थाओं, और मान्यताओं को दूसरों पर थोपने की प्रवृत्ति भी दिलाता है।भारतीय अध्यात्मिक परंपरा में अहंकार को एक बाधक तत्व माना जाता है जो आत्मा के सच्चे स्वरूप को छुपाने में सहायक है। अधिक अहंकार से व्यक्ति माया में फंस जाता है और अध्यात्मिक प्रगति से वंचित हो जाता है। इसलिए, अध्यात्मिक साधना में अहंकार को पार करने की कोशिश की जाती है, ताकि आत्मा का सच्चा स्वरूप प्रकट हो सके। इस संदर्भ में, अहंकार को त्यागने और नम्रता में रहने की सिफारिश की जाती है, जिससे कि व्यक्ति अपने अध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति में सफल हो सके।

 

  • चित्त (Chitta): चित्त हिन्दी में एक ऐसा शब्द है जिसे अंग्रेजी में ‘माइंडस्टफ’ या ‘मेंटल फैकल्टी’ के रूप में व्यक्त किया जा सकता है। योग और अध्यात्म में, चित्त को अक्सर मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त के यह चार अंश माना जाता है। चित्त वास्तविकता की संवेदना को संग्रहित करता है। यह हमें अनुभव करने और समझने में मदद करता है। चित्त में हमारे अनुभवों, विचारों और संवेदनाओं की संचय होती है, जिसे संस्कार कहते हैं। ये संस्कार हमारे प्रतिक्रिया, आचरण और विचार में प्रभावित करते हैं। चित्त विभिन्न परिप्रेक्ष्यों और सितुएशन में प्रतिक्रिया करता है। यह हमें वातावरण में हो रही घटनाओं और घटनाक्रमों का समझने में मदद करता है। चित्त अकेला वह घटक नहीं है जो विचार उत्पन्न करता है, बल्कि यह विचारों को संग्रहित भी करता है। इससे हमें अपने आप में एक अन्तर्नाद की अहसास होती है।भारतीय अध्यात्म में चित्त को व्यापक रूप से समझा जाता है। योग सूत्र में पतंजलि ने चित्त की प्रशांति को योग की पहचान माना है। “योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः” – योग चित्त के वृत्तियों (अवबोधनों) की निरोध (रोक-थाम) है। चित्त की प्रशांति और स्थिरता ही समाधि की कुंजी है। चित्त का संयम और नियंत्रण ही असली योग है और यही व्यक्ति को आत्मा की सच्ची पहचान से जोड़ता है।

3). कारण शरीर (Causal Body) : कारण शरीर, जो कि आध्यात्मिक पाठ्यक्रमों में व्यक्ति के तीन शरीरों (स्थूल, सूक्ष्म और कारण) में सबसे सूक्ष्म और अदृश्य शरीर माना जाता है, हमारे जीवन के अनुभवों के संस्कार और कर्मों का संचय है। कारण शरीर हमारे जीवनों के पूर्वजन्म के कर्मों और संस्कारों का संचय है। यह वह शरीर है जिसमें हमारे संस्कार और कर्म संचित होते हैं और जिसके कारण हम अगले जन्म में जन्म लेते हैं। कारण शरीर में जागरण, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था की अवबोधन रहती है। यह अवस्था हमें हमारे अधिकांश संस्कारों से परिपूर्ण और संजीवनी बनाती है। कारण शरीर का सीधा संबंध मोक्ष या सम्पूर्ण मुक्ति से है। जब व्यक्ति अपने कारण शरीर के संस्कारों और कर्मों को पार कर लेता है, तब वह सम्पूर्ण रूप से मुक्त होता है और आत्मा ब्रह्म से मिल जाती है।

कारण शरीर में अविद्या विद्यमान रहती है। कारण शरीर को अक्सर अनंत और मूल प्रकृति से संबंधित माना जाता है, जिसमें अविद्या (अज्ञान) प्रमुख घटक होता है। अविद्या का अर्थ है आत्मा की असली प्रकृति का अज्ञान। इसके चलते ही जीवात्मा संसार में जन्म लेता है और पुन: पुन: जन्म-मरण के चक्र में फंस जाता है। अविद्या की वजह से ही जीव अपने असली स्वरूप को भूल जाता है और शरीर, मन, और बुद्धि के साथ तादात्म्य (आधार-आधेय भाव) कर लेता है।

जब जीवात्मा अपने असली स्वरूप, जो कि शुद्ध, चैतन्य, और अनंत है, को पहचानता है, तो अविद्या का नाश होता है। यह पहचान आत्म-ज्ञान के माध्यम से होती है। जब अविद्या का नाश होता है, तो कारण शरीर की प्रकृति भी समाप्त हो जाती है, और जीवात्मा को मोक्ष प्राप्त होता है।

जब हम जागते हैं, हमारा स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर सक्रिय होता है। स्थूल शरीर से हम बाहरी जगत को अनुभव करते हैं, और सूक्ष्म शरीर से हम अपनी आंतरिक अनुभूतियों और विचारों को अनुभव करते हैं। स्वप्न अवस्था में, जब हम सपने देखते हैं, तो हमारा सूक्ष्म शरीर सक्रिय होता है, जबकि स्थूल शरीर विश्राम कर रहा होता है। लेकिन सुषुप्ति अवस्था, या गहरी नींद, में हमारे स्थूल और सूक्ष्म शरीर दोनों ही विश्राम में होते हैं। इस समय केवल कारण शरीर ही सक्रिय होता है। इसलिए, सुषुप्ति को कारण शरीर की अवस्था भी कहा जाता है।

सुषुप्ति के समय, जीव अपनी असली प्रकृति, जो शुद्ध चैतन्य है, के करीब होता है, लेकिन अविद्या की वजह से वह इसे पूरी तरह से अनुभव नहीं कर पाता। इसलिए, जब हम जागते हैं, हम अहसास करते हैं कि हमने अच्छी तरह से सोया, लेकिन हमें यह याद नहीं रहता कि हमने कुछ सपने देखे थे या कुछ अनुभव किया। इसे कारण शरीर के अविद्या ज्ञान का प्रकट होना माना जाता है।

 

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11 thought on “तीन शरीर (स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर तथा कारण शरीर) की विस्तृत जानकारी।”
  1. Nice content…keep writing more about sushupti,,,, and how to differentiate chhitta from Mann? Aren’t they same? M curious to know

  2. बहुत अच्छे प्रकार से समझाया l
    मूढ़मति भी समझ सकते हैं l
    धन्यवाद l

  3. Well explained….. Great knowing about karak sreer rachna…. Thanks for the great work👏😊👍

  4. Ye to ati uttam jankari hai prabhu aapko sab kuch pradan kare aise mahatwapurn jankari ko sajha karne ke liye
    manav ko chahiye ke apne karan sarir dwara iswariye shakti mein apna nihit dekhe kintu yeh utne hi kathin anubhav hota hai jitna uss tak pahuchna aur kuch prabhu marg me chale ka marg ho to kripa marg darshan kare
    sdhanyabaad

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