श्री कृष्ण के 1000 नाम

श्री कृष्ण के 1000 नामों को विशेष रूप से ‘विष्णु सहस्रनाम‘ में संकलित किया गया है, जिसमें प्रत्येक नाम उनके अलग-अलग गुणों, लीलाओं और आध्यात्मिक महत्वों को प्रकट करता है। ‘विष्णु सहस्रनाम’ महाभारत के अंतर्गत आनंद वर्मन पर्व में भीष्म पितामह द्वारा उच्चारित हुए थे, जब वे शर-शैय्या पर लेटे थे। यह स्थल विष्णु की विभिन्न रूपों और उनकी अलौकिक शक्तियों का गुणगान करता है।

इन नामों में से प्रत्येक का अपना एक विशिष्ट अर्थ और महत्व है, जो भगवान कृष्ण के विभिन्न पहलुओं को उजागर करते हैं। उदाहरण के लिए, ‘अच्युत’ जिसका अर्थ है अपरिवर्तनीय या अमर, ‘नारायण’ जो अंतहीन जल में निवास करने वाले के रूप में उनके विश्वरूप को दर्शाता है, और ‘जगदीश्वर’ जो उन्हें ब्रह्माण्ड के स्वामी के रूप में प्रस्तुत करता है। इस संग्रह की महत्ता इस तथ्य में निहित है कि ये नाम न केवल भक्तों को भगवान के निकट लाने में सहायक होते हैं, बल्कि उनमें चिंतन और मनन के लिए भी अनेक द्वार खोलते हैं।

श्री कृष्ण के 1000 नाम

  1. हरिगृही: भक्तों के पाप और ताप का हरण करने वाले, श्री कृष्ण का यह नाम उनकी दयालुता और उद्धारक के रूप को प्रकट करता है। वे अपने भक्तों के संकटों को दूर कर, उन्हें आध्यात्मिक शांति प्रदान करते हैं।
  2. देवकीनन्दन: जिन्होंने अपनी माता देवकी को अपने आविर्भाव से अपार आनंद प्रदान किया। यह नाम उनके प्रति देवकी की अपार ममता और प्रेम को दर्शाता है।
  3. कंसहन्‍ता: कंस, अपने क्रूर मामा का वध करने वाले श्री कृष्ण, जिन्होंने अधर्म पर धर्म की विजय सुनिश्चित की। यह नाम उनके शौर्य और पराक्रम को प्रकट करता है।
  4. परात्मा: उच्चतम आत्मा या परमात्मा के रूप में श्री कृष्ण, जो सभी जीवात्माओं के आधार हैं और समस्त ब्रह्मांड को धारण करते हैं।
  5. पीताम्बर: पीले वस्त्र धारण करने वाले, जो उनके विशिष्ट और आकर्षक रूप को दर्शाता है।
  6. पूर्णदेव: पूर्णतया देवत्व को प्राप्त श्री कृष्ण, जिनके दिव्य गुणों का कोई पार नहीं।
  7. रमेश: देवी लक्ष्मी के प्रियतम और उनके अनुरागी।
  8. कृष्ण: जो सबको अपनी ओर आकर्षित करते हैं, उनकी चुम्बकीय व्यक्तित्व को दर्शाता है।
  9. परेश: सर्वोच्च ईश्वर, जो ब्रह्मा और अन्य देवताओं से भी उच्च हैं।
  10. पुराण: प्राचीनतम पुरुष, अनादि और अनंत।
  11. सुरेश: सभी देवताओं के ईश्वर।
  12. अच्युत: जो कभी भी अपनी दिव्यता और महिमा से विचलित नहीं होते।
  13. वासुदेव: वसुदेव के पुत्र और सभी के अंतरात्मा में विराजमान।
  14. देव: सर्वोत्तम प्रकाशस्वरूप परम देवता।
  15. धराभारतहर्ता: पृथ्वी के भार को हरने वाले।
  16. कृती: कृतकृत्य अथवा पुण्यात्मा।
  17. राधिकेश: राधा के प्राणप्रिय।
  18. पर: सर्वोच्च और सर्वश्रेष्ठ।
  19. भूवर: पृथ्वी के स्वामी।
  20. दिव्यगोलोक-नाथ: दिव्य धाम गोलोक के नायक।
  21. सुदाम्नस्तथा राधिकाशापहेतु: सुदामा और राधिका के शाप का कारण।
  22. घृणी: दयालु और करुणामय।
  23. मानिनी-मानद: मानिनी, अर्थात नारी का सम्मान करने वाले श्री कृष्ण, जो नारी की गरिमा और महत्व को समझते हैं और उन्हें उचित मान-सम्मान प्रदान करते हैं।
  24. दिव्यलोक: दिव्य धाम के स्वरूप, जो दिव्यता और पवित्रता के प्रतीक हैं। इस नाम से उनके दिव्य और पावन स्थान का वर्णन होता है।
  25. लसद्गोपवेश: सुंदर गोपवेश धारण करने वाले श्री कृष्ण, जो गोपों के वेष में वृंदावन में विहार करते हैं। इससे उनकी लीला और सरलता का पता चलता है।
  26. अज: अजन्मा, जो कभी जन्म नहीं लेते, अर्थात श्री कृष्ण जो सनातन हैं और जिनका कोई आदि अंत नहीं है।
  27. राधिकात्मा: राधिका के आत्मा, यानी जिनकी आत्मा राधिका हैं, वे श्री कृष्ण, जो राधा के प्रेम में समर्पित हैं।
  28. चलत्कुण्‍डल: जिनके कानों में हिलते हुए कुंडल सुशोभित हैं, उनकी शोभा को बढ़ाते हुए।
  29. कुन्तली: घुंघराले बालों वाले श्री कृष्ण, जिनके बाल सौंदर्य का प्रतीक हैं।
  30. कुन्‍तलस्‍त्रक: केशराशि में फूलों की माला धारण करने वाले, जो प्रकृति के साथ उनके गहरे संबंध को दर्शाता है।
  31. कदाचिद् राधया रथस्‍थ: कभी-कभी राधिका के साथ रथ में विराजमान, जो उनकी प्रेम लीला का भाग है।
  32. दिव्यरत्न: दिव्य रत्न, कौस्तुभ मणि धारण करने वाले और संपूर्ण जगत के दिव्य रत्न।
  33. सुधासौधभूचारण: चूने से लिपे-पुते महल की छत पर घूमने वाले, जो उनके दिव्य धाम की महिमा को प्रकट करता है।
  34. दिव्यवासा: दिव्य वस्त्र धारण करने वाले, जो उनके राजसी वैभव को दर्शाता है।
  35. कदा वृन्‍दकारण्‍यचारी: कभी-कभी वृंदावन में विचरने वाले, जहाँ उन्होंने अपनी अनेक लीलाएँ कीं।
  36. स्‍वलोके महारत्न सिंहासनस्‍थ: अपने धाम में महामूल्यवान रत्नों से जड़ित सिंहासन पर विराजमान।
  37. प्रशान्‍त: परम शांत, जो सर्वदा शांति के प्रतीक हैं।
  38. महाहंसभैश्‍चामरैर्वीज्‍यमान: महान हंसों के समान श्‍वेत चामरों से जिन्हें हवा दी जाती है, यह उनके राजसी वैभव का प्रतीक है।
  39. चलच्‍छत्रमुक्तावली शोभमान: हिलते हुए श्‍वेतच्‍छत्र और मुक्तावली से सजे, जो उनके दिव्य स्वरूप को और अधिक शोभायमान बनाते हैं।
  40. सुखी: आनंद स्वरूप, जिनका अस्तित्व ही सुख और आनंद से परिपूर्ण है।
  41. कोटिकंदर्प लीलाभिराम: करोड़ों कामदेवों के सामने उनकी लीलाओं की मनोहरता, जो उनकी अद्भुत शोभा को दर्शाती है।
  42. क्वणन्नूपुरालं कृताङघ्रि: झंकृत नूपुरों से सजे हुए चरणों वाले, जो उनके नृत्य और गतिशीलता का संकेत करते हैं।
  43. शुभाङघ्रि: शुभ और मंगलमय पैरों वाले, जिनके चरण संसार के कल्याण के लिए हैं।
  44. सुजानु: सुंदर और आकर्षक घुटनों वाले।
  45. रम्भाशुभोरु: केले के समान सुंदर और शुभ ऊरुयुगल (जांघ) वाले।
  46. कृशांग: पतले और सुडौल शरीर वाले।
  47. प्रतापी: तेजस्वी और प्रतापशाली, जिनका प्रभाव सभी पर विस्तारित होता है।
  48. इभशुण्‍डासुदोर्दण्‍डखण्‍ड: हाथी की सूंड के समान सुंदर भुजाओं वाले।
  49. जपापुष्‍पहस्‍त: जपापुष्प (हिबिस्कस) के फूल के समान लाल हथेलियों वाले।
  50. शातोदरश्री: पतली और शोभायमान कमर वाले।
  51. महापद्मवक्ष: स्‍थल: जिनका वक्षस्थल विशाल कमल के समान है, जो उनके दिव्य हृदय की महानता का प्रतीक है।
  52. चन्‍द्रहास: जिनकी मुस्कान में चंद्रमा की चांदनी झलकती है, उनके मुख की माधुर्यता और सौंदर्य को दर्शाता है।
  53. लसत्‍कुन्‍ददन्‍त: जिनके दांत कुंद के फूलों के समान उज्ज्वल और सुंदर हैं, उनके हंसमुख व्यक्तित्व का प्रतीक।
  54. बिम्बाधरश्री: जिनके होंठ पके हुए बिम्ब फल की तरह अरुण और मनोहर हैं, उनकी सौंदर्यता का प्रतिबिंबित करते हैं।
  55. शरत्‍पद्मनेत्र: शरद ऋतु में खिले कमल के समान नेत्र वाले श्री कृष्ण, जो सौंदर्य और शांति के प्रतीक हैं।
  56. किरीटोज्ज्वलाभ: जिनके किरीट में उज्ज्वलता है, उनकी राजसी आभा और गरिमा को दर्शाता है।
  57. सखीकोटिभिर्वर्तमान: करोड़ों सखियों के साथ विहार करते हुए उनकी लीला और सम्मोहन को दर्शाता है।
  58. निकुंजे प्रियाराधया राससक्त: निकुंज में राधा के साथ रासलीला में लीन, उनकी प्रेम लीला का वर्णन करता है।
  59. नवांग: जिनके दिव्य अंग नित्य नवीन और आकर्षक हैं, उनकी निरंतर नवीनता और युवापन का प्रतीक।
  60. धराब्रह्मरुद्रा दिभि: प्रार्थित: सन् धराभारदूरीक्रियार्थं प्रजात: धरती, ब्रह्मा और रुद्र आदि देवताओं के आग्रह पर धरती का भार हल्का करने के लिए अवतार लेने वाले।
  61. यदु: यादवकुल के प्रमुख और उनकी विभूति के प्रतीक।
  62. देवकीसौख्‍यद: माता देवकी को सुख और आनंद प्रदान करने वाले।
  63. बन्धनच्छित: जन्म के समय अपने माता-पिता के बंधन को काटने वाले और भवबंधन से मुक्ति दिलाने वाले।
  64. सशेष: शेषनाग अवतार, बलराम के साथ अवतीर्ण होने वाले।
  65. विभु: अनंत और सर्वव्यापक, जो समस्त सृष्टि में व्याप्त हैं।
  66. योगमायी: योगमाया के अधिपति, जो आध्यात्मिक शक्ति के स्वामी हैं।
  67. विष्‍णु: विष्णु अवतार, जो समस्त जगत का पालन करते हैं।
  68. व्रजे नन्‍दपुत्र: व्रज में नन्द बाबा के पुत्र के रूप में लीला करने वाले।
  69. यशोदासुताख्‍य: यशोदा के पुत्र के रूप में प्रसिद्ध।
  70. महासौख्‍यद: महान सुख और आनंद प्रदान करने वाले।
  71. बालरूप: बालक रूप में अवतीर्ण होने वाले, जो अपनी बाल लीलाओं से सभी को मोहित करते हैं।
  72. शुभांग: जिनका शरीर सुंदर और शुभ लक्षणों से युक्त है।
  73. पूतनामोक्षद: पूतना को मोक्ष प्रदान करने वाले, उनकी दयालुता और क्षमा का प्रतीक।
  74. श्‍यामरूप: श्‍याम वर्ण, अर्थात काले रंग के मनोहर रूप वाले।
  75. दयालु: करुणा के सागर, जो सभी प्राणियों पर दया करते हैं।
  76. अनोभञ्जन: शकटासुर का नाश करने वाले, उनकी बाल लीला का एक भाग।
  77. पल्लवाङ्‌घ्रि: नवोदित पल्लवों के समान कोमल और सुंदर पैर वाले।
  78. तृणावर्त संहारकारी: तृणावर्त असुर का संहार करने वाले, जो उनके दैवीय शक्ति का प्रमाण है।
  79. गोप: गोपों के बीच विहार करने वाले, वृंदावन की लीलाओं के अधिपति।
  80. यशोदायश: यशोदा के पुत्र के रूप में विख्यात, उनके बाल रूप की शोभा का वर्णन।
  81. विश्वरूपप्रदर्शी: जिन्होंने माता यशोदा, अर्जुन, धृतराष्ट्र और उत्तंक को अपने विश्वरूप का दर्शन कराया, अनंत ब्रह्मांड का स्वरूप प्रकट करने वाले।
  82. गर्गदिष्‍ट: जिनका नामकरण गर्गाचार्य द्वारा किया गया था, और उनके भावी भविष्यवाणी की गई।
  83. भाग्योदयश्री: जिनकी शोभा और तेज से भाग्योदय का सूचक है, उनकी दिव्यता और सौभाग्य का प्रतीक।
  84. लसद्वालकेलि: जिनके बाल लीलाएं सुंदर और मनमोहक हैं, उनकी बालकृष्ण की खेलों का वर्णन।
  85. सराम: बलरामजी के साथ विचरण करने वाले, बलराम के साथ उनकी गहरी मित्रता और भ्रातृप्रेम का प्रतीक।
  86. सुवाच: मनमोहक और सरस बातें करने वाले, जिनकी वाणी से भक्तों का हृदय परिपूर्ण होता है।
  87. क्वणत्रूपुरै: शब्दयुक्त: झनझनाते हुए नूपुर पहने हुए, जिनकी ध्वनि से संगीत का सृजन होता है।
  88. जानु-हस्तैर्व्रजेशांगणे रिंगमाण: व्रज के अंगण में घुटनों और हाथों के बल चलने वाले, उनकी बाल लीला का विशेष अंश।
  89. दधिस्‍पृक्: दही का स्पर्श करने वाले, दही के साथ उनकी चंचल लीलाओं का सूचक।
  90. हैयंगवीदुग्धभोक्ता: ताजा माखन और दूध का आस्वादन करने वाले, व्रज की गोपियों के घरों में उनकी नटखट लीलाएं।
  91. दधिस्‍तेयकृत्: व्रजांगनाओं को सुख देने हेतु दही की चोरी करने वाले, उनकी शरारत भरी लीलाओं का वर्णन।
  92. दुग्धभुक्: दूध का पान करने वाले, जो उनकी बालकृष्ण रूप की याद दिलाता है।
  93. भाण्डभेत्ता: दही, दूध आदि के मटके फोड़ने वाले, जो उनके नटखट स्वभाव को दर्शाता है।
  94. मृदं भुक्तवान्: मिट्टी खाने वाले, जो उनकी बाल लीला का एक अनूठा पहलू है।
  95. गोपज: नंदगोप के पुत्र, जो व्रज के जीवन का आधार हैं।
  96. विश्‍वरूप: जिनका स्वरूप समस्त विश्व में व्याप्त है, सर्वव्यापी और अनंत।
  97. प्रचण्‍डांशुचण्‍डप्रभामण्डितांग: सूर्य की प्रखर किरणों से आभामय शरीर वाले, जो उनकी तेजस्विता और दिव्यता को दर्शाता है।
  98. यशोदाकरैर्बन्‍धनप्राप्‍त: यशोदा माता के हाथों ओखली में बंधे हुए, जो उनकी मातृ-प्रेम और लाड़ली बाल लीला का प्रतीक है।
  99. आद्य: आदिपुरुष, सभी के आदिकारण, जो सृष्टि के आदि कारण हैं।
  100. मणिग्रीवमुक्तिप्रद: कुबेर के पुत्र मणिग्रीव और नलकूबर को शाप से मुक्ति देने वाले, उनकी कृपा और दया का प्रतीक।
  101. दामबद्ध: यशोदा द्वारा रस्सी से बंधे हुए, जो उनके बाल रूप की सरलता और नटखटपन को दर्शाता है।
  102. कदा व्रजे गोपिकाभि: नृत्‍यमान: व्रज में गोपिकाओं के साथ नृत्य करने वाले, जो उनकी रासलीला का वर्णन करता है।
  103. कदा नन्‍दसन्नन्‍दकैर्लाल्‍यमान: नंद और सन्नंद जैसे गोपों द्वारा लाड़-प्यार से दुलारे जाने वाले, जो उनके बचपन की सरलता और ममता को दर्शाता है।
  104. कदा गोपनन्‍दांक: नंद बाबा की गोद में खेलते हुए, उनके बचपन की अनुराग भरी लीला का प्रतीक।
  105. गोपालरूपी: ग्वाल रूप धारण करने वाले, जो व्रज के जीवन और संस्कृति के प्रतिबिंबित करते हैं।
  106. कलिन्‍दांजाकूलग: यमुना नदी के किनारे विहार करने वाले, जो उनकी लीला के प्राकृतिक सौंदर्य का प्रतीक है।
  107. वर्तमान: नित्य सत्ता वाले, सदैव विद्यमान और सर्वव्यापी।
  108. घनैर्मारूतैश्‍छन्न भाण्‍डीरदेश नन्‍दहस्‍ताद् राधया गृहीतो वर: घने बादलों और तेज हवा से आच्छादित भाण्डीरवन में नंदजी के हाथों से राधा द्वारा ग्रहण किया गया वर, जो उनकी लीला का रहस्यमयी और दिव्य पहलू है।
  109. गोलोकलोकागते महारत्नसंघैर्यते कदम्बावृते निकुंजे राधिकासद्विवाहे ब्रह्मणा प्रतिष्‍ठानगत: गोलोकधाम से आए, महान रत्नों से शोभित, कदम्ब वृक्षों से घिरे निकुंज में राधिका के साथ विवाह में ब्रह्माजी द्वारा स्थापित।
  110. साममन्‍त्रै: पूजित: सामवेद के मंत्रों द्वारा पूजित, उनकी आध्यात्मिक शक्ति और दिव्यता का प्रतीक।
  111. रसी: विविध रसों के अधिष्ठान, परम रसिक, जिन्हें भक्ति और प्रेम के विभिन्न भावों में रसास्वादन की क्षमता है।
  112. मालतीनां वनेअपि प्रियाराधया सह राधिकार्थ रासयुक्त: मालती वन में भी प्रियतमा राधिका के साथ उनका सुख बढ़ाने के लिए रासलीला में संलग्न।
  113. रमेश: धरानाथ: लक्ष्मी के पति और पृथ्वी के स्वामी, उनकी राजसी और दिव्य स्थिति का प्रतीक।
  114. आनन्‍दद: आनंद प्रदान करने वाले, जिनके संसर्ग से अनंत आनंद की प्राप्ति होती है।
  115. श्रीनिकेत: लक्ष्मी का निवास, जो धन और समृद्धि के प्रतीक हैं।
  116. वनेश: वृंदावन के स्वामी, जो उनके प्रेम और लीला के स्थल का प्रतीक हैं।
  117. धनी: असीम धन और ऐश्वर्य के स्वामी, जो संपूर्ण सृष्टि के धनी हैं।
  118. सुन्‍दर: अद्वितीय सौंदर्य के अधिपति, जिनकी शोभा अनुपम है।
  119. गोपिकेश: गोपियों के प्रियतम, जो उनकी भक्ति और प्रेम के केंद्र हैं।
  120. कदा राधया नन्‍दगेहे प्रापित: किसी समय राधा द्वारा नंद बाबा के घर में ले जाए गए, जो उनकी विशेष लीला का हिस्सा है।
  121. यशोदाकरैर्लालित: यशोदा माता द्वारा लाड़ प्यार किया गया, जो उनके मातृप्रेम की अभिव्यक्ति है।
  122. मन्‍दहास: मंद-मंद हंसने वाले, जो उनकी सौम्यता और माधुर्य का प्रतीक है।
  123. क्वापि भयी: कहीं-कहीं डरे हुए की भांति लीला करने वाले, जो उनकी बाल लीला का अनूठा पहलू है।
  124. वृन्‍दारकारण्‍यवासी: वृंदावन में निवास करने वाले, जो उनके पवित्र और दिव्य लीला स्थल का प्रतीक है।
  125. महामंदिरे वासकृत: नंद बाबा के विशाल भवन में निवास करने वाले, जो उनके राजसी और दिव्य निवास का प्रतीक है।
  126. देवपूज्य: देवताओं द्वारा पूजित, जो उनकी दिव्यता और महत्व का संकेत है।
  127. वने वत्सचारी: वन में बछड़ों के साथ चराने वाले, जो उनकी गोपालक लीला का हिस्सा है।
  128. महावत्सहारी: वत्सासुर का वध करने वाले, जो उनकी वीरता और दिव्य शक्ति का प्रतीक है।
  129. बकारि: बकासुर के शत्रु, जो उनकी अद्भुत शक्ति और वीरता को दर्शाता है।
  130. सुरै: पूजित: देवताओं द्वारा पूजित, जो उनके दिव्य और उच्च स्थान को दर्शाता है।
  131. अघारिनामा: अघासुर का वध कर ‘अघारि’ के नाम से प्रसिद्ध, जो उनकी वीरता और दैवीय शक्ति का प्रतीक है।
  132. वने वत्‍सकृत्: जो वन में नए बछड़ों की सृष्टि करते हैं, इस नाम से उनकी सृजनात्मकता और प्रकृति के साथ उनके सामंजस्य का प्रतीक है।
  133. गोपकृत: जिन्होंने ग्वाल बालों का निर्माण किया, उनकी लीलाओं में उनका सामाजिक योगदान और संबंधों का महत्व स्पष्ट होता है।
  134. गोपवेश: गोप का वेश धारण करने वाले, जो उनके विनम्रता और साधारणता का प्रतीक है।
  135. कदा ब्रह्मणा संस्‍तुत: किसी समय ब्रह्माजी द्वारा उनकी स्तुति की गई, उनकी दिव्यता और महत्व का द्योतक।
  136. पद्मनाभ: जिनकी नाभि से कमल का उद्गम हुआ, इससे उनकी सृजनशीलता और ब्रह्मांड के प्रति उनका संबंध दर्शित होता है।
  137. विहारी: जो वृंदावन में भक्तों के साथ विभिन्न प्रकार के विहार करते हैं, उनकी जीवंतता और प्रेमपूर्ण लीलाएं इसमें प्रतिबिंबित होती हैं।
  138. तालभुक: ताड़ का फल खाने वाले, जो उनके सादगी भरे जीवन का प्रतीक हैं।
  139. धेनुकारि: धेनुकासुर के विनाशक, उनकी शक्ति और पराक्रम का प्रदर्शन।
  140. सदा रक्षक: सदैव सभी का रक्षण करने वाले, उनकी सर्वजन हिताय की भावना का प्रतीक।
  141. गोविषार्ति प्रणाशी: जिन्होंने यमुना नदी के विषाक्त जल का पान कर गायों के भीतर के विष का नाश किया और इस प्रकार वृंदावन के जीवन को संरक्षित किया।
  142. कालियस्‍य दमी: कालिय नाग को जीतने वाले, जिन्होंने अपनी शक्ति और दृढ़ता से नाग का दमन किया।
  143. फणेषु नृत्‍यकारी: कालिय नाग के फण पर नृत्य करने वाले, जिससे उनकी लीलाविधि और दिव्यता का प्रदर्शन होता है।
  144. प्रसिद्ध: जिन्हें सर्वत्र प्रसिद्धि प्राप्त है, उनके चमत्कार और लीलाओं के कारण वे विश्वव्यापी रूप से प्रसिद्ध हैं।
  145. सलील: जो लीलाओं में रत रहते हैं, उनकी विभिन्न लीलाएं जीवन और ब्रह्मांड के विभिन्न पहलुओं को प्रकट करती हैं।
  146. शमी: स्वभाव से शांत, जो उनके संतुलित और सौम्य स्वभाव को दर्शाता है।
  147. ज्ञानद: ज्ञान का दान करने वाले, जो उनकी आध्यात्मिक शिक्षाओं और दार्शनिकता को प्रकट करते हैं।
  148. कामपूर: जो भक्तों की कामनाओं को पूर्ण करते हैं, उनकी कृपा और दयालुता का प्रतीक है।
  149. गोपयुक्: जो गोपों के साथ विराजमान रहते हैं, उनकी सामाजिकता और बंधुत्व का प्रतीक है।
  150. गोप: गौओं के पालक या गोपस्वरूप, जो वृंदावन में उनकी गोपालक लीलाओं का सूचक है और उनकी करुणा एवं संरक्षण का प्रतीक है।
  151. आनन्दकारी: आनंददायिनी लीला प्रस्तुत करने वाले, जो उनके जीवन और लीलाओं में आनंद की सर्जना और उनकी दिव्य खुशियों का प्रतिबिंब है।
  152. स्थिर: स्थिरता युक्त, जो उनकी अविचलित शक्ति और दृढ़ता का प्रतिनिधित्व करता है।
  153. अग्निभुक्: दावानल को पी जाने वाले, जिससे उनकी अपार शक्ति और सृष्टि की रक्षा करने की क्षमता का पता चलता है।
  154. पालक: रक्षक, जो सभी जीवों की सुरक्षा और उनके कल्याण के लिए सदैव तत्पर रहते हैं।
  155. बाललील: बालकों जैसी क्रीड़ा करने वाले, जिसमें उनकी निर्मलता और बाल सुलभ खेलों की झलक मिलती है।
  156. सुराग: मुरली के सुरों में सुंदर राग गाने वाले, जो उनकी कलात्मकता और संगीत के प्रति उनकी अद्भुत प्रतिभा को दर्शाता है।
  157. वंशीधर: मुरलीधारी, जिनकी मुरली की धुन भक्तों के हृदयों में भक्ति और प्रेम का संचार करती है।
  158. पुष्‍पशील: स्वभावत: फूलों का श्रृंगार धारण करने वाले, जिससे उनकी सौंदर्य और प्रकृति के साथ उनके गहरे संबंध की झलक मिलती है।
  159. प्रलम्‍बप्रभानाशक: बलराम रूप में प्रलम्बासुर की प्रभा के नाशक, जो उनकी असीम शक्ति और रक्षक भाव का प्रदर्शन है, साथ ही दुष्टता पर धर्म की जीत का प्रतीक है।
  160. गौरवर्ण: गोरे वर्णवाले बलराम, जिनका सौम्य और शांत स्वरूप उनके दिव्य चरित्र को दर्शाता है, और उनके सौंदर्य का सूचक है।
  161. बल: बलस्वरूप या बलभद्र, जो उनके अपार शक्ति और पराक्रम का वर्णन करता है, साथ ही उनकी स्थिरता और दृढ़ता को भी प्रकट करता है।
  162. रोहिणीज: रोहिणी के पुत्र, जिनका जन्म और लालन-पालन रोहिणी द्वारा हुआ, जो उनके अनुराग और मातृ प्रेम का प्रतीक है।
  163. राम: बलराम का संक्षिप्त नाम, जो उनकी दिव्यता और सौम्यता का प्रतीक है, और उनकी बलशाली प्रकृति को भी दर्शाता है।
  164. शेष: शेषनाग का अवतार, जो उनके अद्भुत और दिव्य स्वरूप का संकेत है, और उनकी अनंत शक्ति को भी प्रकट करता है।
  165. बली: बलवान, जो उनकी अपार शक्ति और पराक्रम का प्रतीक है, और उनकी सामर्थ्य को दर्शाता है।
  166. पद्मनेत्र: कमलनयन, जो उनकी दिव्य और सुंदर आंखों का वर्णन करता है, और उनकी अनुपम सुंदरता को प्रकट करता है।
  167. कृष्‍णाग्रज: श्रीकृष्ण के बड़े भाई के रूप में, जो उनके प्रति अपने स्नेह और सुरक्षा के भाव का प्रदर्शन करते हैं, साथ ही उनके साथ उनके गहरे आत्मीय संबंधों को भी दर्शाते हैं।
  168. धरेश: धरणीधर या पृथ्वी का भार वहन करने वाले, जो उनकी अदम्य शक्ति और स्थिरता का संकेत देते हैं।
  169. फणीश: नागराज या सर्पराज के रूप में, जिन्होंने अपने दिव्य रूप में विशाल सर्प का आकार धारण किया, उनकी दिव्यता और महिमा का प्रतीक।
  170. नीलाम्बराभ: नीले वस्त्र की शोभा धारण करने वाले, जो उनके दिव्य सौंदर्य और वैभव को दर्शाते हैं।
  171. अग्निहारक: मुंजाटवी में लगी हुई आग को हरने वाले, जिससे उनकी रक्षात्मक शक्ति और प्राकृतिक तत्वों पर उनकी सामर्थ्य का पता चलता है।
  172. व्रजेश: व्रज के स्वामी या शासक, जो व्रज के निवासियों पर उनके प्रेमपूर्ण और संरक्षणात्मक शासन का संकेत देते हैं।
  173. शरदगीष्‍मवर्षाकर: शरद (शरद ऋतु), ग्रीष्म (गर्मी) और वर्षा (बारिश) के रूप में प्रकट होने वाले, जो प्रकृति के साथ उनके गहरे संबंध और उस पर उनके प्रभाव को दर्शाते हैं।
  174. कृष्णवर्ण श्यामसुन्दर – श्याम वर्ण के कृष्ण, जिन्हें उनके सुन्दर रूप के लिए जाना जाता है।
  175. व्रजे गोपिकापूजित: – व्रज मंडल में गोप सुंदरियों द्वारा पूजित, जहाँ गोपियाँ उन्हें अत्यधिक श्रद्धा और प्रेम से पूजती हैं।
  176. चीरहर्ता – चीरहरण की दिव्य लीला को संपन्न करने वाले, जिसमें कृष्ण ने गोपियों के वस्त्र हरण कर उन्हें शिक्षा दी थी।
  177. कदम्बे स्थित: – चीर हरण कर कदम्ब के वृक्ष पर विराजमान होने वाले।
  178. चीरद: – जब गोपियों ने उनसे अपने वस्त्र वापस मांगे, तो उन्हें वस्त्र लौटाने वाले।
  179. सुन्दरीश: – सुंदर गोपी कुमारियों के प्राणेश्वर और आराध्य।
  180. क्षुधानाशकृत् – ग्वाल बालों की भूख मिटाने वाले, उन्हें भोजन प्रदान कर उनकी क्षुधा शांत करने वाले।
  181. यज्ञपत्नीमन: स्पृक – यज्ञ करने वाले ब्राह्मणों की पत्नियों के मन को स्पर्श करने वाले, उनके हृदय में बस जाने वाले।
  182. कृपाकारक: – अपनी दया और करुणा से भक्तों पर अनुग्रह करने वाले।
  183. केलिकर्ता – क्रीड़ा और लीलाओं में निपुण, विभिन्न प्रकार की लीलाओं के माध्यम से अपने भक्तों को प्रसन्न करने वाले।
  184. अवनीश: – पृथ्वी के स्वामी, संपूर्ण भूमंडल पर उनका अधिपत्य।
  185. व्रजे शक्रयाग प्रणाश: – व्रज मंडल में इंद्र याग की परंपरा को समाप्त करने वाले, जिससे लोगों की आस्था में परिवर्तन हुआ।
  186. अमिताशी – गोवर्धन पूजा में समर्पित असीमित भोजन को ग्रहण करने वाले।
  187. शुनासीरमोहप्रद: – इंद्र को मोहित करने वाले या उनके मोह का खंडन करने वाले।
  188. बालरूपी – बाल रूप धारण करने वाले, बालक कृष्ण के रूप में अनेक लीलाएं की।
  189. गिरे: पूजक: – गिरिराज गोवर्धन की पूजा करने वाले, जिन्होंने उन्हें अपनी उंगली पर उठाया था।
  190. नन्दपुत्र: – नन्द रायजी के पुत्र, जिन्होंने गोकुल में अपना बाल्यकाल व्यतीत किया।
  191. अगध्र: गिरिवरधारी – गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाले, जिन्होंने अपनी उंगली पर पर्वत को उठाकर व्रजवासियों की रक्षा की।
  192. कृपाकृत् – कृपा करने वाले, जो अपनी दिव्य कृपा से सभी का कल्याण करते हैं।
  193. गोवर्धनोद्धारिनामा – गोवर्धनोद्धारी नाम वाले, जो गोवर्धन पर्वत को उठाने के लिए प्रसिद्ध हैं।
  194. वातवर्षाहर: – आंधी और वर्षा के कष्टों को हरने वाले, जिन्होंने व्रजवासियों को इन प्राकृतिक प्रकोपों से बचाया।
  195. रक्षक: – व्रजवासियों की रक्षा करने वाले, उनके संरक्षक और सहायक।
  196. व्रजाधीश गोपांगनाशंकित: – व्रजराज नन्द और गोपांगनाओं के प्रति संवेदनशील, जिनकी असाधारण कर्मों ने इनमें शंका उत्पन्न की कि वे नारायण हो सकते हैं।
  197. अगेन्द्रोपरि शक्रपूज्य: – गिरिराज गोवर्धन के ऊपर इंद्र द्वारा पूजे जाने वाले।
  198. प्राकस्तुत: – पहले जिनका स्तवन हुआ है, उनकी महिमा का गान करने वाले।
  199. मृषा शिक्षक: – नंदादि गोपों को व्यर्थ की बातों में उलझाकर उन्हें शिक्षित करने वाले।
  200. देवगोविन्द नामा – ‘गोविंददेव’ नाम धारण करने वाले, जिन्हें इस दिव्य नाम से जाना जाता है।
  201. व्रजाधीशरक्षाकर: – व्रजराज नन्द की रक्षा करने वाले, उन्हें वरुणलोक से छुड़ाकर लाने वाले।
  202. पाशिपूज्य: – पाशधारी वरुण द्वारा पूजनीय, जो उनके आराध्य हैं।
  203. अनुगैर्गोपजै: दिव्यवैकुण्ठदर्शी – अनुगामी ग्वालबालों के साथ दिव्य वैकुण्ठधाम का दर्शन कराने वाले।
  204. चलच्चारुवंशीक्वण: – मनोहर वंशी की ध्वनि को चारों ओर फैलाने वाले।
  205. कामिनीश: – गोप सुंदरियों के प्राणेश्वर, उनके हृदय में बसने वाले।
  206. व्रजे कामिनी मोहद: – व्रज की कामिनियों को मोहित करने वाले, उनके मन को आकर्षित करने वाले।
  207. कामरूप: – कामदेव से भी अधिक सुंदर रूप वाले।
  208. रसाक्त: – रस में डूबे हुए, भक्ति और आनंद की रसमयी अनुभूति में लीन।
  209. रसी रासकृत् – रासलीला करने वाले, रास क्रीड़ा में निपुण।
  210. राधिकेश: – राधिका के स्वामी, उनके आराध्य देव।
  211. महामोहद: – महान मोह प्रदान करने वाले, अपार आकर्षण का स्रोत।
  212. मानिनीमानहारी – मानिनियों के मान को हरने वाले, उनके अभिमान को दूर करने वाले।
  213. विहारी वर: – विहार में निपुण, श्रेष्ठ विहारी।
  214. मानहृत – मान हरने वाले, जो गर्व को दूर करते हैं।
  215. राधिकांग: – राधिका जिनकी वांग्मय स्वरूपा हैं।
  216. धराद्वीपग: – भूमंडल के सभी द्वीपों में विचरण करने वाले।
  217. खण्डचारी – विभिन्न वनखंडों में विचरण करने वाले।
  218. वनस्थ: – वन में निवास करने वाले।
  219. प्रिय: – सभी के प्रियतम, जिन्हें सभी प्यार करते हैं।
  220. अष्टवक्रर्षिद्रष्टा – अष्टावक्र ऋषि का दर्शन करने वाले।
  221. सराध: राधिका के साथ विचरने वाले – राधिका के साथ सदैव विचरण करने वाले, उनके निकटतम संगी।
  222. महामोक्षद: महामोक्ष प्रदान करने वाले – महान मोक्ष का वरदान देने वाले, अध्यात्मिक मुक्ति के प्रदायक।
  223. प्रियार्थं पद्महारी: – प्रियतमा की प्रसन्नता के लिए कमल के फूल लाने वाले, उनकी प्रसन्नता के लिए सदैव प्रयासरत।
  224. वटस्थ: – वटवृक्ष पर विराजमान, प्राकृतिक सौंदर्य में लीन।
  225. सुर: – देवताओं के समान दिव्य और पवित्र।
  226. चन्दनाक्त: – चन्दन से अलंकृत, सुगंधित और शीतलता प्रदान करने वाले।
  227. प्रसक्त: – श्रीराधा के प्रति अत्यधिक अनुरागी, उनमें पूर्णतः लीन।
  228. राधया व्रजं ह्यागत: – श्रीराधा के साथ व्रजमंडल में प्रकट हुए, उनके साथ दिव्य लीलाएँ रचने वाले।
  229. मोहिनीषु महामोहकृत् – मोहिनियों में भी महामोह उत्पन्न करने वाले, अपने अनुपम सौंदर्य से सबको मोहित करने वाले।
  230. गोपिकागीतकीर्ति: – गोपिकाओं द्वारा गाए गए कीर्तनों में वर्णित, उनके गीतों में स्तुतित।
  231. रसस्थ: – अपने स्वरूपभूत रस में स्थित, आनंद और प्रेम की अभिव्यक्ति में निमग्न।
  232. पटी – पीताम्बरधारी, पीले वस्त्रों में सुशोभित।
  233. दु:खिता-कामिनीश: – दुखित नारियों के रक्षक, उनके कष्टों को दूर करने वाले।
  234. वने गोपिकात्यागकृत् – वन में गोपियों का त्याग करने वाले, प्रेम की गहराई का परीक्षण करने वाले।
  235. पादचिह्नप्रदर्शी – वन में खोजती हुई गोपिकाओं को अपने चरण चिन्ह प्रदर्शित करने वाले।
  236. कलाकारक: – चौंसठ कलाओं में निपुण, समस्त कला के ज्ञाता।
  237. काममोही – अपने रूप और लावण्य से कामदेव को भी मोहित करने वाले।
  238. वशी – मन और इंद्रियों को वश में रखने वाले, संयमी।
  239. गोपिकामध्यग: – गोपांगनाओं के बीच में विराजमान, उनके हृदय में स्थान रखने वाले।
  240. पेशवाच: – मधुरभाषी, मधुर वाणी वाले।
  241. प्रियाप्रीतिकृत् – प्रिया श्रीराधा से प्रेम करने वाले और उनकी प्रसन्नता के लिए सदैव तत्पर।
  242. रासरक्त: – रास के रंग में रंगे हुए, रासलीला में लीन।
  243. कलेश: – समस्त कलाओं के स्वामी, कला के अधिपति।
  244. रसारक्तचित्त – रस में निमग्न चित्त वाले, भक्ति और प्रेम में डूबे हुए।
  245. अनन्तस्वरूप: – अनंत रूप वाले, विविध रूपों में प्रकट होने वाले।
  246. स्त्रजासंवृत: – आजानुलंबित वनमाला धारण करने वाले, प्राकृतिक सौंदर्य से सुशोभित।
  247. वल्लवीमध्यसंस्थ: – गोपांगना मंडल के मध्य बैठे हुए, उनके साथ समरसता में विलीन।
  248. सुबाहु: – सुंदर बाहों वाले, शक्ति और सौंदर्य के प्रतीक।
  249. सुपाद: – सुंदर पैर वाले, कोमलता और लालित्य के प्रतीक।
  250. सुवेश: – सुंदर वेश धारण करने वाले, आकर्षक और दिव्य वेशभूषा वाले।
  251. सुकेशो व्रजेश – सुंदर केशों वाले व्रजमंडल के स्वामी, व्रज के अधिपति।
  252. सखा – सख्य-रति के आलंबन, मित्रता और साथीपन में उत्कृष्ट।
  253. वल्लभेश: – प्राणवल्लभा श्रीराधा के हृदयेश, उनके प्रेम में अद्वितीय।
  254. सुदेश: – सर्वोत्कृष्ट देश स्वरूप, उत्तम स्थान के प्रतीक।
  255. क्वणत्किंकिणीजालभृत् – झंकारती हुई किंकिणी की लड़ों को धारण करने वाले, संगीतमय अलंकार धारी।
  256. नूपुराढ्य: – चरणों में नूपुरों की शोभा से सम्पन्न, लावण्यमयी अलंकार धारी।
  257. लसत्कंकण: – कलाइयों में सुंदर कंगन धारण करने वाले, सौंदर्यपूर्ण आभूषण वाले।
  258. अंगदी – बाजूबंद धारण करने वाले, भुजाओं में शोभा बढ़ाने वाले।
  259. हारभार: – हारों के भार से विभूषित, अलंकरण में अग्रणी।
  260. किरीटी – मुकुटधारी, राजसी वैभव और गरिमा के प्रतीक।
  261. चलत्कुण्डल: – कानों में हिलते हुए कुंडलों से सुशोभित, गतिमय सौंदर्य के प्रतीक।
  262. अंगुलीयस्फुरत्कौस्तुभ: जो अपने हाथों में अंगूठी के साथ वक्षस्थल पर चमकती हुई कौस्तुभ मणि धारण करते हैं, इससे उनकी दिव्यता और राजसी वैभव का दर्शन होता है।
  263. मालतीमण्डितांग: जिनका शरीर मालती की माला से सुशोभित है, यह उनके सौंदर्य और प्रकृति से गहरे संबंध को प्रकट करता है।
  264. महानृत्‍यकृत्: जो महारास नृत्य करते हैं, इससे उनकी कलात्मकता और उनके नृत्य में निहित आध्यात्मिक गहराई का पता चलता है।
  265. रासरंग: रासलीला में तत्पर, जो उनकी प्रेममयी और आनंदपूर्ण लीलाओं का संकेत है।
  266. कलाढ्य: समस्त कलाओं में दक्ष, जो उनकी सर्वगुण सम्पन्नता और बहुआयामी प्रतिभा को दर्शाता है।
  267. चलद्धारभ: जिनके हिलते हुए रत्नहार से छटा बिखरती है, जो उनके शाही और दिव्य सौंदर्य का प्रदर्शन करता है।
  268. भामिनी-नृत्‍ययुक्‍त: जो भामिनियों (महिलाओं) के साथ नृत्य में संलग्न होते हैं, जो उनकी लीलाओं की भावपूर्णता और उनके सम्मोहन का प्रतीक है।
  269. कलिन्‍दांगजाकेलिकृत्: कलिंदी (यमुना) की धारा में क्रीड़ा करने वाले, जो उनकी नटखट और आनंदपूर्ण लीलाओं का प्रतीक है।
  270. कुंकुमश्री: केसर-कुंकुम की शोभा से सम्पन्न – जो केसर और कुंकुम से सुशोभित हैं, उनका सौंदर्य और तेज केसर-कुंकुम की चमक द्वारा और अधिक निखरता है।
  271. सुरैर्नायिका-नायकैर्गीयमान: – नायिकाओं के नायक, यानी वे जिनकी स्तुति देवताओं और उनकी प्राणप्रिय नायिकाओं द्वारा की जाती है।
  272. सुखाढ्य: – स्वरूपभूत सुख से सम्पन्न, अर्थात अपने आनंदमय स्वरूप में स्थित।
  273. राधापति: – श्रीराधिका के प्राणवल्लभ, उनके प्रेम में एकनिष्ठ।
  274. पूर्ण-बोध – पूर्ण ज्ञानस्वरूप, सर्वज्ञानी और ज्ञान के अधिष्ठान।
  275. कटाक्षस्मिती – नचाई हुई भौहों के विलास से शोभायमान, उनकी भौहें और मुस्कान में विलासपूर्ण आकर्षण है।
  276. वल्गितभ्रूविलास: – नचाई हुई भौंहों के विलास से शोभित, उनकी भौंहों की नृत्यात्मक गति से सुशोभित।
  277. सुरम्य: – अत्यंत रमणीय, मनमोहक और आकर्षक।
  278. अलिभि:कुन्तलालोलकेश: – मंदराते भ्रमरों से युक्त कुछ हिलते घुंघराले केश वाले, जिनके केश भ्रमरों की भांति आकर्षित करते हैं।
  279. स्फुरद्वर्ह-कुन्दस्त्रजाचारुवेश: – फरफराते हुए मोर पंख के मुकुट और कुंद कुसुमों की माला से मनोहर वेश धारण करने वाले।
  280. महासर्पतो नन्दरक्षापराङ्घ्रि: जिनके चरणों ने महान अजगर से नंद बाबा की रक्षा की, यह उनके रक्षात्मक और दिव्य शक्ति का प्रतीक है।
  281. सदा मोक्षद: सतत रूप से मोक्ष प्रदान करने वाले, जो उनकी आत्मा को मुक्ति और आध्यात्मिक उद्धार की दिशा में ले जाने की उनकी दिव्य क्षमता को दर्शाता है।
  282. शंखचूडप्रणाशी: ‘शंखचूड़’ नामक यक्ष को मारने वाले, जिससे उनकी पराक्रमी और रक्षक स्वभाव का पता चलता है।
  283. प्रजारक्षक: प्रजा के पालनहार, जो अपने भक्तों की रक्षा और कल्याण के लिए सदैव तत्पर रहते हैं।
  284. गोपिकागीयमान: गोपियों द्वारा जिनकी महिमा का गान किया जाता है, जो उनके प्रेम और भक्ति के प्रति उनकी सर्वोच्च स्थिति को दर्शाता है।
  285. कुद्मिप्रणाशप्रयास: अरिष्टासुर के वध के प्रयास करने वाले, जो उनके दुष्टों पर विजय प्राप्त करने के प्रयासों का वर्णन करता है।
  286. सुरेज्‍य: देवताओं द्वारा पूजनीय, जिनकी दिव्यता और महिमा सभी देवताओं द्वारा मान्यता प्राप्त है।
  287. कलि: कलियुग के स्वरूप, जो उनकी कलियुग में उपस्थिति और उनके विशेष महत्व का प्रतीक है।
  288. क्रोधकृत्: जो दुष्टों पर क्रोध करने वाले हैं, उनकी न्यायपूर्ण और दुष्टता के प्रति अटलता को दर्शाते हैं।
  289. कंसमन्त्रोपदेष्टा: नारद के रूप में कंस को मंत्रोपदेश करने वाले, उनकी योजनाबद्ध रणनीति और लीला का एक हिस्सा, जो कंस के प्रति उनकी युक्ति का प्रदर्शन है।
  290. अक्रूरमन्त्रोपदेशी: अक्रूर को अपने नाम-मंत्र का उपदेश करने वाले या उन्हें मंत्रणा देने वाले, जो उनकी भक्ति और शिक्षा के प्रति समर्पण का प्रतीक है।
  291. सुरार्थ: देवताओं का प्रयोजन सिद्ध करने वाले, जो उनकी दिव्यता और देवताओं के प्रति उनकी सेवा का संकेत देते हैं।
  292. बली केशिहा: केशी दानव का नाश करने वाले महान बलवान, जो उनकी शक्ति और पराक्रम को दर्शाता है।
  293. पुष्पवर्षामलश्री: देवताओं द्वारा पुष्पवर्षा के साथ सम्मानित, उनके दिव्य कृत्यों और महिमा का प्रदर्शन करता है।
  294. अमलश्री: उज्ज्वल और निर्मल शोभा से संपन्न, उनके दिव्य और पवित्र स्वरूप का प्रतीक है।
  295. नारदादेशतो व्‍योमहन्‍ता: नारद के निर्देश पर व्योमासुर का वध करने वाले, जो उनकी न्यायपूर्ण और धर्म की रक्षा करने वाले भूमिका को दर्शाता है।
  296. अक्रूरसेवापर: नंद-व्रज में आए हुए अक्रूर की सेवा में तत्पर, जो उनकी आतिथ्य और भक्तों के प्रति उनके सम्मान का प्रतीक है।
  297. सर्वदर्शी: सबके द्रष्टा, जो उनकी सर्वज्ञता और अंतर्ज्ञान को दर्शाता है, और उनकी दिव्य दृष्टि का प्रतीक है।
  298. व्रजे गोपिकामोहद: व्रज में गोपियों को मोहित करने वाले, जिनकी अनुपम सुंदरता और आकर्षण से व्रज की गोपियां मुग्ध थीं, उनके प्रेम और आकर्षण की शक्ति का प्रतीक।
  299. कूलवर्ती: यमुना के तट पर विद्यमान, जो उनके यमुना के तट पर लीला करने की प्राकृतिक सुंदरता और संबंध को प्रकट करता है।
  300. सतीराधिकाबोधद: मथुरा जाते समय सती राधिका को बोध (आश्वासन) देने वाले, जो उनके और राधा के बीच अमर प्रेम और उनके आश्वासन का प्रतीक है।
  301. स्वप्नकर्ता: श्री राधिका के लिए सुखमय स्वप्न की सृष्टि करने वाले, जो उनके प्रेम और संवेदनशीलता का प्रतीक है।
  302. विलासी: लीला और विलास में तल्लीन, जो उनकी खेलकूद और अनायास चपलता का प्रदर्शन करता है।
  303. महामोहनाशी: महामोह के नाशक, जो उनकी अध्यात्मिक शक्ति और जागृति का प्रतीक है।
  304. स्वबोधः: आत्मबोध स्वरूप, जो उनकी आत्मज्ञान और स्व-अवबोध का प्रतीक है।
  305. व्रजे शापतस्त्यक्तराधासकाशः: व्रज में शाप के कारण राधा के समीप निवास का त्याग करने वाले, जो उनके प्रेम और त्याग की कथा को बताता है।
  306. महामोहदावाग्निदग्धापतिः: श्रीराधा के प्राणरक्षक, जो महामोह रूपी दावानल से दग्ध होने वाली राधा की रक्षा करते हैं, उनके प्रेम और सुरक्षा का सूचक।
  307. सखीबन्धनान्मोचिताक्रूरः: सखियों के बंधन से अक्रूर को छुड़ाने वाले, जो उनकी कृपा और संरक्षण की भावना को दर्शाते हैं।
  308. आरात सखीकङ्कणैस्ताडिताक्रूररक्षी: निकट आई सखियों के कंगनों की मार से पीड़ित अक्रूर की रक्षा करने वाले, जो उनकी सहायता और करुणा का प्रतीक हैं।
  309. व्रजे राधयारथस्थः: व्रज में राधा के साथ रथ पर विराजमान, जो उनके और राधा के बीच दिव्य प्रेम और संगति का प्रतीक है।
  310. कृष्णचंद्रः: श्रीकृष्णचंद्र, जिनकी सुंदरता और तेज चंद्रमा के समान आकर्षक और प्रभावशाली है।
  311. गोपकैः सुगुप्तो गमी: ग्वाल-बालों के साथ अत्यंत गुप्तरूप से मथुरा की यात्रा करने वाले, जो उनकी चतुराई और सावधानी का प्रतीक है।
  312. चारुलीलः: मनोहर लीलाएँ करने वाले, जो उनकी अद्भुत और आकर्षक लीलाओं का वर्णन करते हैं।
  313. जलेऽक्रूरसंदर्शितः: यमुना के जल में अक्रूर को अपने रूप का दर्शन कराने वाले, जो उनकी दिव्यता और महिमा को प्रकट करता है।
  314. दिव्यरूपः: दिव्यरूपधारी, जिनका रूप स्वर्गीय और अलौकिक है।
  315. दिदृक्षुः: मथुरापुरी देखने के इच्छुक, जो उनकी उत्सुकता और जिज्ञासा का प्रतीक है।
  316. पुरीमोहिनीचित्तमोही: मथुरापुरी की मोहिनी स्त्रियों के भी चित्त को मोह लेने वाले, जो उनकी आकर्षण शक्ति का प्रमाण है।
  317. रङ्गकारप्रणाशी: कंस के रंगकार या धोबी को नष्ट करने वाले, जो उनकी शक्ति और साहस का प्रतीक है।
  318. सुवस्त्रः: सुंदरवस्त्रधारी, जो अपने आकर्षक और दिव्य परिधानों के माध्यम से अपनी शाही और दिव्यता का प्रदर्शन करते हैं। उनके वस्त्र उनकी रॉयल्टी और सौंदर्य के प्रतीक हैं।
  319. स्त्रजी: माली सुदामा की दी हुई माला धारण करने वाले, जो उनके सादगी और सरलता के प्रतीक हैं। इस गुण से वे यह दर्शाते हैं कि उनके लिए सभी की भावनाएं समान महत्व रखती हैं।
  320. वायकप्रीतिकृत्: दर्जी को प्रसन्न करने वाले, जो उनके सभी प्राणियों के प्रति समान दया और स्नेह को दर्शाता है। उनकी यह गुणवत्ता उन्हें सभी जीवों के प्रति समान रूप से कृपालु बनाती है।
  321. मालिपूज्यः: माली के द्वारा पूजित, जिन्होंने अपनी भक्ति और आत्मसमर्पण के माध्यम से भगवान कृष्ण का आशीर्वाद प्राप्त किया। यह दर्शाता है कि सच्ची भक्ति के लिए सामाजिक स्थिति या पेशे का कोई महत्व नहीं होता।
  322. महाकीर्तिदः: माली को महान सुयश प्रदान करने वाले, जो अपनी दयालुता और कृपा के माध्यम से उन्हें आध्यात्मिक उपलब्धियों में सफल बनाते हैं।
  323. कुब्जाविनोदी: कुब्जा के साथ हास-विनोद करने वाले, जो उनके सौम्यता और मिलनसार स्वभाव का प्रतीक हैं। इससे उनकी समावेशी और सर्व-स्वीकार्य प्रकृति का पता चलता है।
  324. स्फुरच्चदण्ड-कोदण्डरुग्णः: कंस के कांतिमान धनुष को तोड़ने वाले, जिससे उनके अपरिमित बल और साहस का पता चलता है।
  325. प्रचण्डः: प्रचंड यानी अत्यंत शक्तिशाली, जिनकी महान शक्ति और वीरता से कोई भी युद्ध को जीता जा सकता है।
  326. भटार्त्तिप्रदः: कंस के मल्ल योद्धाओं को पीड़ा देने वाले, जिनके वीरता और युद्ध कौशल से दुष्टों को पराजित किया जाता है।
  327. कंसदुःस्वप्नकारी: कंस को बुरे सपने दिखाने वाले, जो उनके भविष्य के पतन और श्री कृष्ण के प्रति उनके भय को दर्शाते हैं।
  328. महामल्लवेशः: महान मल्लों के समान वेष धारण करने वाले, जो अपने पराक्रम और योद्धा के गुणों का प्रतीक हैं। श्री कृष्ण ने यह रूप धारण कर कंस के मल्ल-युद्ध में विजयी होकर अपनी अद्भुत शक्ति का प्रदर्शन किया।
  329. करीन्द्र-प्रहारी: गजराज कुवलयापीड़ पर प्रहार करने वाले, जिन्होंने अपनी असीम शक्ति और चतुराई से इस भयानक हाथी को पराजित किया। यह कार्य श्री कृष्ण के असाधारण बल और साहस को दर्शाता है।
  330. महामात्यहा: महावतों को मारने वाले, जिन्होंने कंस के महावतों को उनके अत्याचारों के लिए दंडित किया। इससे श्री कृष्ण के न्यायप्रिय और दुष्टता के विरुद्ध लड़ाई का पहलू उजागर होता है।
  331. रंगभूमिप्रवेशी: कंस की मल्लशाला में प्रवेश करने वाले, जहाँ उन्होंने अपने अद्वितीय पराक्रम का प्रदर्शन किया। इस प्रवेश के साथ ही एक नई युग की शुरुआत हुई और कंस के अत्याचार का अंत निकट आया।
  332. रसाढ्यः: नौ रसों से संपन्न, जो अपनी लीलाओं में भावों की विविधता का अद्भुत संयोजन प्रस्तुत करते हैं। उनकी हर लीला में एक नया रस और भाव छिपा होता है, जो भक्तों के लिए आनंद का स्रोत है।
  333. यशःस्पृक्: यशस्वी, जिनकी कीर्ति संसार में व्यापक है। उनके दिव्य कार्यों और लीलाओं की गाथाएँ युगों-युगों तक गाई जाती रहेंगी।
  334. बलीवाक्पटुश्रीः: अनंत शक्ति से संपन्न और वार्तालाप में प्रवीण। श्री कृष्ण न केवल अपनी शारीरिक शक्ति के लिए जाने जाते हैं, बल्कि उनके वचन भी गहन अर्थ और ज्ञान से परिपूर्ण होते हैं।
  335. महामल्लहा: बड़े-बड़े मल्लों जैसे चाणूर और मुष्टिक का वध करने वाले। उन्होंने अपने अदम्य साहस और शक्ति से इन शक्तिशाली योद्धाओं को परास्त किया।
  336. युद्धकृत्: युद्ध में सक्रिय भाग लेने वाले। श्री कृष्ण का युद्धकला में दक्षता उन्हें एक अप्रतिम योद्धा बनाती है।
  337. स्त्रीवचोअर्थी: रंगोत्सव में उपस्थित स्त्रियों की बातों को ध्यान से सुनने वाले। श्री कृष्ण न केवल योद्धा थे, बल्कि वे स्त्रियों के वचनों और भावनाओं के प्रति भी अत्यधिक संवेदनशील थे।
  338. धरानायक: कंसहन्ता: कंस का वध करने वाले और धरती के नायक। उनका यह कृत्य न केवल एक अन्यायी शासक का अंत था, बल्कि धर्म और न्याय की स्थापना भी थी।
  339. प्राग्यदु: पूर्ववर्ती राजा और यदुवंश के महान नायक। श्री कृष्ण यदुवंश की प्रतिष्ठा और गौरव के प्रतीक थे।
  340. सदापूजित: सदैव सभी द्वारा पूजित। उनकी दिव्यता और लीलाएं उन्हें सनातन पूज्य बनाती हैं।
  341. उग्रसेनप्रसिद्ध: उग्रसेन की प्रसिद्धि के कारण। श्री कृष्ण ने उग्रसेन को उनका उचित सम्मान और स्थान प्रदान किया, जिससे उनकी प्रसिद्धि बढ़ी।
  342. धराराज्यद: उग्रसेन को भूमंडल का राज्य देने वाले। उन्होंने उग्रसेन को उनका उचित स्थान वापस दिलाकर धर्म की स्थापना की।
  343. यादवैर्मण्डितांग: यादवों द्वारा सुशोभित शरीर वाले। श्री कृष्ण यादव वंश के महान नायक थे और उनका सम्मान और प्रेम उन्हें यादवों के बीच विशेष बनाता था।
  344. गुरो: पुत्रद: गुरु को पुत्र प्रदान करने वाले। यह नाम श्री कृष्ण की उस लीला का संकेत करता है जब उन्होंने अपने गुरु संदीपनि के खोए हुए पुत्र को वापस लाया, जिससे उनके गुरु का शोक दूर हुआ।
  345. ब्रह्मविद्: ब्रह्मावेत्ता, जो ब्रह्म के स्वरूप और उसके गूढ़ ज्ञान को जानते हैं। श्री कृष्ण अद्वितीय ज्ञानी हैं जो सांसारिक और आध्यात्मिक दोनों तरह के ज्ञान में पारंगत हैं।
  346. ब्रह्मपाठी: वेदपाठ करने वाले। श्री कृष्ण न केवल भौतिक लीलाओं में सिद्ध हैं बल्कि वे वैदिक ज्ञान में भी निपुण हैं।
  347. महाशंखहा: महान राक्षस शंखासुर का वध करने वाले। उनकी यह लीला उनके पराक्रम और दैवीय शक्ति का प्रतीक है।
  348. दण्डधृकपूज्य: दंडधारी यमराज के लिए भी पूजनीय। यह दर्शाता है कि श्री कृष्ण की दिव्यता का सम्मान स्वयं देवताओं द्वारा भी किया जाता है।
  349. व्रजे उद्धव प्रेषिता: व्रज में वहां का समाचार जानने के लिए उद्धव को भेजने वाले। यह घटना उद्धव के माध्यम से व्रजवासियों के प्रति उनकी गहरी संवेदना और चिंता को प्रकट करती है।
  350. गोपमोही: अपने रूप, गुण और सद्भाव से गोपों को मोहित करने वाले। श्री कृष्ण का यह स्वभाव उनके अद्वितीय आकर्षण और व्यक्तित्व की गहराई को दर्शाता है।
  351. यशोदाघृणी: माता यशोदा के प्रति अत्यंत करुणामयी भावनाओं वाले। श्री कृष्ण और यशोदा का संबंध मातृत्व और प्रेम की अनुपम मिसाल है।
  352. गोपिकाज्ञानदेशी: गोपियों को आध्यात्मिक ज्ञान और उपदेश देने वाले। श्री कृष्ण ने अपनी लीलाओं के माध्यम से गोपियों को जीवन के गहरे सत्यों की शिक्षा दी।
  353. सदा स्नेहकृत्: सदैव स्नेह और प्रेम देने वाले। उनका हृदय सदैव प्रेम से परिपूर्ण रहता है।
  354. कुब्जया पूजितांग: कुब्जा द्वारा पूजित अंग वाले। कुब्जा के प्रति श्री कृष्ण की कृपा और स्नेह उनकी उदारता को दर्शाती है।
  355. अक्रूरगेहंगमी: अक्रूर के घर आगमन करने वाले। इस कृत्य के द्वारा श्री कृष्ण ने अक्रूर के प्रति अपना सम्मान और आदर प्रकट किया।
  356. मन्त्रवेत्ता: मंत्रों के गहरे अर्थ और ज्ञान को समझने वाले। उनका यह ज्ञान उन्हें एक अद्वितीय आध्यात्मिक गुरु बनाता है।
  357. सुखी सर्वदर्शी: सदैव सुखपूर्ण और सर्वज्ञानी। यह नाम श्री कृष्ण की सर्वज्ञता और सर्वदर्शी भाव को दर्शाता है, जो हर परिस्थिति में सुख और आत्मज्ञान की स्थिति में स्थिर रहते हैं।
  358. नृपानन्द-कारी: राजा उग्रसेन को आनंद प्रदान करने वाले। श्री कृष्ण का यह स्वरूप दर्शाता है कि वे अपने अधीनस्थों और समर्थकों को न केवल सुरक्षा प्रदान करते थे बल्कि उनके हृदय में आनंद और संतोष भी भरते थे।
  359. महाक्षौहिणीहा: जरासंध की तीस अक्षौहिणी सेना का विनाश करने वाले। श्री कृष्ण की इस लीला में उनकी असीम शक्ति और युद्ध कौशल की झलक मिलती है, जिससे उन्होंने अपार सेना को पराजित किया।
  360. पाण्‍डवप्रेषिताक्रूर: पांडवों के संदेश और समाचार लाने के लिए अक्रूर को भेजने वाले। इस नाम से श्री कृष्ण की दूरदर्शिता और कूटनीति का परिचय मिलता है। वे अक्रूर को पांडवों के पास भेजते हैं, ताकि वे पांडवों की स्थिति और उनके इरादों का सही आकलन कर सकें। यह कदम न केवल उनकी चतुराई को दर्शाता है, बल्कि उनकी पांडवों के प्रति अटूट निष्ठा और समर्थन का भी संकेत देता है।
  361. जरासंधमानोद्धर: जरासंध का मान भंग करने वाले। इस नाम से श्री कृष्ण की शक्ति और चतुराई का परिचय मिलता है, जिसके माध्यम से वे जरासंध के गर्व को चूर-चूर कर देते हैं, उसकी अहंकार को तोड़ते हैं और उसे अपनी सीमाओं का एहसास कराते हैं।
  362. द्वारकाकारक: द्वारकापुरी का निर्माण करने वाले। इस नाम से श्री कृष्ण के एक आदर्श शासक और संगठनकर्ता के रूप का वर्णन होता है, जिन्होंने द्वारका नगरी की स्थापना की और उसे एक उन्नत समाज और संस्कृति के केंद्र के रूप में विकसित किया।
  363. मोक्षकर्ता: भवबंधन से छुटकारा दिलाने वाले। यह नाम श्री कृष्ण की दिव्यता और आत्मिक उन्नति के मार्गदर्शक के रूप में उनकी भूमिका को दर्शाता है। वे भक्तों को मोक्ष प्राप्ति का मार्ग दिखाते हैं और उन्हें जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त करते हैं।
  364. रणी: युद्ध के लिए सदा उद्यत। इस नाम से श्री कृष्ण की युद्ध में कुशलता और निर्भीकता का परिचय मिलता है। वे हमेशा न्याय और धर्म की रक्षा के लिए तैयार रहते हैं।
  365. सर्वाभैमस्तुत: सत्ययुग के चक्रवर्ती राजा मुचुकुन्द ने जिनकी स्तुति की, ऐसे। इस नाम से श्री कृष्ण की महिमा और उनके प्रति अतीत युगों के राजाओं की गहरी भक्ति का वर्णन होता है।
  366. ज्ञानदाता: मुचुकुन्द को ज्ञान प्रदान करने वाले। इस नाम के माध्यम से श्री कृष्ण के ज्ञानप्रदानकर्ता रूप को दर्शाया गया है, जो भक्तों को आध्यात्मिक ज्ञान और अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं।
  367. जरासंध संकल्पकृत: एक बार अपनी पराजय का अभिनय करके जरासंध के संकल्प की पूर्ति करने वाले। यह नाम श्री कृष्ण की रणनीतिक और चतुराई से भरी कृतियों का प्रतीक है।
  368. धावदङ्घ्रि: पैदल भागने वाले। यह नाम उनके फुर्तीलेपन और शारीरिक कौशल को दर्शाता है, विशेषकर युद्ध की परिस्थितियों में।
  369. नगादुत्पतन्द्वारकामध्वर्ती: प्रवर्षण पर्वत से उछलकर द्वारकापुरी के बीच विराजमान। यह नाम श्री कृष्ण की अलौकिक शक्तियों और दिव्यता को दर्शाता है।
  370. रेवतीभूषण: बलरामरूप में रेवती के सौभाग्यभूषण। यह नाम श्री बलराम की प्रतिष्ठा और उनके रेवती के प्रति प्रेम को दर्शाता है, जो श्री कृष्ण के बड़े भाई हैं।
  371. तालचिह्नो यदु: ताल के चिह्न से युक्त ध्वजा वाले यदुवीर। यह नाम यदुवंश के प्रतिनिधित्व और उनके ध्वज के प्रतीक रूप में ताल चिह्न का उल्लेख करता है।
  372. रुक्मिणीहारक: रुक्मिणी का अपहरण करने वाले। यह नाम रुक्मिणी के साथ श्री कृष्ण के दिव्य प्रेम की एक कथा का संकेत देता है, जहां वे उन्हें विवाह से पहले अपने साथ ले जाते हैं।
  373. चैद्यभेद्य: चेदिराज शिशुपाल जिनका वध्य है, वे। यह नाम श्री कृष्ण और शिशुपाल के बीच के ऐतिहासिक युद्ध और शिशुपाल के अंत का वर्णन करता है।
  374. रूक्मिरूपप्रणाशी: रुक्मी की आधी मूंछ मुंड़कर उसे कुरूप बनाने वाले। यह नाम रुक्मी के साथ श्री कृष्ण के संघर्ष की घटना को दर्शाता है।
  375. सुखाशी: स्वरूपभूत आनंद के आस्वादक। यह नाम श्री कृष्ण के आत्मसुख और आनंद के स्रोत के रूप में है।
  376. अनन्त: शेषनागस्वरूप। यह नाम अनंत शेषनाग के अवतार के रूप में उनकी अनंत शक्तियों का संकेत देता है।
  377. मार: कामदेवावतार। इस नाम से उनके कामदेव के अवतार के रूप को दर्शाया गया है।
  378. कार्ष्णि: कृष्णकुमार प्रद्युम्न। यह नाम प्रद्युम्न, श्री कृष्ण के पुत्र, के संबंध को दर्शाता है।
  379. काम: कामदेव। इस नाम से श्री कृष्ण की कामदेव के रूप में उनकी पहचान को दर्शाया जाता है, जिनकी उपस्थिति प्रेम और सौंदर्य को बढ़ाती है। इसके माध्यम से श्री कृष्ण की अपार आकर्षण शक्ति का भी वर्णन होता है।
  380. मनोज: काम। इस नाम के द्वारा श्री कृष्ण को मन को भ्रमित करने वाले के रूप में दर्शाया गया है। “मनोज” यह संकेत करता है कि श्री कृष्ण की लीलाएं और उनकी उपस्थिति भक्तों के हृदय और मन को गहराई से छूती हैं, उनमें आध्यात्मिक भावनाओं को जागृत करती हैं।
  381. शम्‍बरारि: शम्‍बरासुर के शत्रु कामदेव। इस नाम से प्रद्युम्न (श्रीकृष्ण के पुत्र) का उल्लेख किया गया है, जिन्होंने शम्बरासुर का वध किया। पौराणिक कथाओं के अनुसार, प्रद्युम्न को कामदेव का अवतार माना जाता है।
  382. रतीश: रति के स्‍वामी। यह नाम प्रद्युम्न को रति के पति के रूप में दर्शाता है। रति, कामदेव की पत्नी हैं, और प्रद्युम्न को उनका स्‍वामी माना जाता है।
  383. रथी: रथारूढ़। इस नाम से प्रद्युम्न के रथ पर विराजमान होने की छवि का वर्णन किया गया है। युद्ध में उनकी रथ पर सवारी की छवि उनकी वीरता और योद्धा के रूप को प्रकट करती है।
  384. मन्मथ: मन को मथ देने वाले। यह नाम कामदेव के लिए प्रयोग किया जाता है, जिनके बाण हृदयों में प्रेम और आकर्षण पैदा करते हैं।
  385. मीनकेतु: मत्‍स्‍यचिन्‍ह ध्‍वजा से युक्‍त। यह नाम उनके ध्वज पर मछली के चिह्न को दर्शाता है, जो उनकी विशिष्ट पहचान के रूप में है।
  386. शरी: बाणधारी। कामदेव के पांच बाणों को संदर्भित करता है जो विभिन्न प्रकार के आकर्षण और प्रेम को उत्पन्न करते हैं।
  387. स्‍मर: काम। कामदेव को स्मर यानी प्रेम के देवता के रूप में दर्शाता है।
  388. प्रिय: सत्यभामापति: सत्‍यभामा के प्रिय पति। यह नाम श्रीकृष्ण के सत्यभामा से प्रेमपूर्ण संबंध का सूचक है, जो उनकी एक प्रमुख पत्नियों में से एक हैं।
  389. यादवेश: यादवों के स्‍वामी। यह नाम श्रीकृष्ण को यादव वंश के मुखिया के रूप में पहचानता है, जो उनके राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव को दर्शाता है।
  390. सत्राजित्प्रेमपूर: सत्राजित् के प्रेम को पूर्ण करने वाले। इस नाम से श्रीकृष्ण की सत्राजित के प्रति की गई कृपा और उदारता का वर्णन होता है, जिसके संबंध में स्यमन्तक मणि की कहानी प्रसिद्ध है।
  391. प्रहास: उत्‍कृष्‍ट हास वाले। श्रीकृष्ण का यह नाम उनके प्रसन्नचित्त और हास्यमय स्वभाव को दर्शाता है, जिनकी मुस्कान मनमोहक और आकर्षक है।
  392. महारत्नद: महारत्‍न स्‍यमन्‍तक को ढूंढ़कर ला देने वाले। यह नाम श्रीकृष्ण के द्वारा सत्राजित के खोये हुए स्यमन्तक मणि को पुनः प्राप्त करके लाने के घटनाक्रम को संदर्भित करता है।
  393. जाम्बवद्युद्धकारी: जाम्‍बवान् से युद्ध करने वाले। यह नाम श्रीकृष्ण के और जाम्‍बवान् के बीच हुए युद्ध की घटना का संकेत देता है, जो स्यमन्तक मणि के संबंध में हुआ था।
  394. महाचक्रधृक्: महान सुदर्शन चक्र धारण करने वाले। श्रीकृष्ण के इस नाम से उनके द्वारा धारण किए गए दिव्य सुदर्शन चक्र का उल्लेख होता है।
  395. खड्गधृक्: ‘नन्‍दक’ नामक खड्ग धारण करने वाले। यह श्रीकृष्ण के द्वारा धारण किए गए विशेष खड्ग ‘नन्‍दक’ की ओर संकेत करता है।
  396. रामसंधि: बलरामजी के साथ संधि करने वाले। इस नाम से श्रीकृष्ण के बलराम के साथ घनिष्ठ संबंधों और उनके मध्य हुए संधि या समझौते का वर्णन होता है।
  397. विहारस्‍थित: लीलाविहारपरायण। यह नाम श्रीकृष्ण के लीलामय और विहारपूर्ण जीवन की ओर संकेत करता है।
  398. पाण्डवप्रेमकारी: पाण्‍डवों से प्रेम करने वाले। इस नाम से श्रीकृष्ण का पाण्‍डवों के प्रति गहरा प्रेम और समर्थन दर्शाया गया है।
  399. कलिन्‍दांगजामोहन: कालिन्‍दी के मन को मोह लेने वाले। यह नाम श्रीकृष्ण के और यमुना नदी के देवी कालिन्‍दी के मध्य प्रेमपूर्ण संबंध को व्यक्त करता है।
  400. दर्पक: कामदेव। यह नाम भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के कामदेव रूप का संकेत करता है, जो अपनी आकर्षण शक्ति से सभी को मोहित करते हैं।
  401. मानहा: मानमर्दन करने वाले। इस नाम से प्रद्युम्न के उस गुण का वर्णन होता है जिसमें वे अहंकार और मान को नष्ट करते हैं।
  402. पञ्चबाण: पंचबाणधारी कामदेव। यह नाम प्रद्युम्न के कामदेव रूप को दर्शाता है, जिन्हें पांच बाणों से सज्जित माना जाता है, प्रत्येक बाण विभिन्न प्रकार के प्रेम और आकर्षण का प्रतीक होता है।
  403. खाण्डवार्थी: खांडव वन को अग्निदेव के लिए अर्पित करने के इच्छुक। श्रीकृष्ण ने अर्जुन के साथ मिलकर खांडव वन को अग्निदेव को समर्पित किया, जिससे अग्निदेव की भूख शांत हुई।
  404. फाल्गुनप्रीतिकृत् सखा: अर्जुन पर प्रेम रखने वाले उनके सखा। अर्जुन और श्रीकृष्ण के बीच गहरा मित्रता संबंध था, और श्रीकृष्ण ने अनेक बार अर्जुन की सहायता की।
  405. नग्नकर्ता: खाण्डव-वन को जलाकर नग्न (शून्य) करने वाले। श्रीकृष्ण ने अग्निदेव के लिए खांडव वन को जलाकर उसे वृक्षहीन और नग्न बना दिया।
  406. मित्रविन्दापति: ‘मित्राविन्दा’ नामवाली अवंती देश की राजकुमारी के पति। मित्रविन्दा श्रीकृष्ण की पत्नियों में से एक थीं।
  407. क्रीडनार्थी: क्रीडा या खेल के इच्छुक। श्रीकृष्ण विभिन्न प्रकार के खेलों और लीलाओं में रस लेने वाले थे।
  408. नृपप्रेमकृत्: राजा नग्नजित् से प्रेम करने वाले। नग्नजित् श्रीकृष्ण के मित्र थे।
  409. सप्तरूपो गोजयी: सात रूप धारण करके सात बिगड़ैल बैलों को एक ही साथ नाथकर काबू में कर लेने वाले। यह श्रीकृष्ण की विशिष्ट लीला थी।
  410. सत्यापति: नग्नजित् कुमारी सत्या के पति। सत्या श्रीकृष्ण की एक और पत्नी थीं।
  411. पारिवर्ही: राजा नग्नजित् द्वारा दिए गए दहेज को ग्रहण करने वाले। श्रीकृष्ण ने राजा नग्नजित् से विवाह के समय उनके द्वारा दिए गए दहेज को स्वीकार किया।
  412. यथेष्‍टम्: पूर्ण। श्रीकृष्ण अपनी सम्पूर्णता में पूर्ण थे, उनमें किसी प्रकार की कमी नहीं थी।
  413. नृपै: संवृत: सत्या को लेकर लौटते समय मार्ग में युद्धार्थी राजाओं द्वारा घेर लिए जाने वाले। विवाह के बाद सत्या के साथ वापस लौटते समय श्रीकृष्ण को अन्य राजाओं ने घेर लिया था।
  414. भद्रापति: भद्रा के स्वामी। भद्रा भी श्रीकृष्ण की पत्नियों में से एक थीं।
  415. मधोर्विलासी: मधुमास चैत्र की पूर्णिमा को रासविलास करने वाले। श्रीकृष्ण ने इस समय रासलीला का आनंद लिया था।
  416. मानिनीश: मानिनी जनों के प्राणवल्लभ। श्रीकृष्ण उन मानिनीओं के भी प्रिय थे जो उनसे नाराज़ या खिन्न थीं।
  417. जनेश: प्रजाजनों के स्वामी। श्रीकृष्ण अपनी प्रजा के लिए एक सर्वोत्तम स्वामी थे।
  418. शुनासीरमोहावृत: इंद्र के प्रति मोह (स्नेह एवं कृपाभाव) से युक्त। श्रीकृष्ण इंद्र के प्रति विशेष भाव रखते थे।
  419. सत्सभार्य: सती भार्या से युक्त। श्रीकृष्ण की सभी पत्नियां सती और धर्मपरायण थीं।
  420. सतार्क्ष्य: गरुड़ पर आरूढ़। गरुड़, विष्णु अवतार श्रीकृष्ण का वाहन है, और वे अक्सर गरुड़ पर आरूढ़ होते थे। गरुड़ का प्रतीक सौर्य, शक्ति और वेग का है, और यह भक्ति और समर्पण का प्रतीक भी माना जाता है।
  421. मुरारि: मुर नामक दैत्य का नाश करने वाले। यह नाम उनके उस वीरतापूर्ण कार्य को दर्शाता है जहाँ उन्होंने मुर नामक शक्तिशाली दैत्य को पराजित किया।
  422. पुरीसंघभेत्ता: भौमासुर की दुर्गम पुरी के दुर्ग का भेदन करने वाले। यह उनकी अपार शक्ति और रणनीतिक कौशल को प्रदर्शित करता है।
  423. सुवीर शिरःखंडन: श्रेष्ठ वीर असुरों के सिर काटने वाले। यह उनकी असुरों पर विजय और उनकी अद्वितीय वीरता को दर्शाता है।
  424. दैत्यनाशी: दैत्यों का संहार करने वाले। इस नाम से उनकी असुरों पर विजय और धर्म की रक्षा के प्रयास को दर्शाया गया है।
  425. शरी भौमहा: शरों से सुसज्जित होकर भौमासुर का वध करने वाले। यह उनकी युद्धकौशल और शक्ति का प्रतीक है।
  426. चंडवेग: प्रचंड वेग वाले। इस नाम से उनकी अद्भुत गति और तीव्रता को दर्शाया गया है।
  427. प्रवीर: महान योद्धा। यह उनके असाधारण युद्ध कौशल और वीरता को दर्शाता है।
  428. धरासंस्तुत: पृथ्वी देवी द्वारा उनके गुणों की स्तुति की गई। यह उनकी महिमा और गरिमा को दर्शाता है।
  429. कुंडलछत्रहर्ता: अदिति के कुंडल और इंद्र के छत्र को भौमासुर की राजधानी से वापस लाकर स्वर्गलोक तक पहुंचाने वाले। यह उनकी देवताओं की सहायता और न्याय की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
  430. महारत्नयुक्त: महान रत्नों से संपन्न। यह उनके धन और समृद्धि के प्रतीक के रूप में उनकी महिमा को दर्शाता है।
  431. राजकन्याभिराम: सोलह हजार राजकुमारियों के अद्वितीय और आकर्षक पति। यह उनके अनुपम सौंदर्य और राजकुमारियों के प्रति उनकी अनुरागपूर्ण स्वीकार्यता को दर्शाता है।
  432. शचीपूजित: स्वर्ग में इंद्र की पत्नी शची द्वारा सम्मानित और पूजित। यह उनकी देवताओं में उच्च स्थान और पूज्यता का प्रतीक है।
  433. शक्रजित: पारिजात वृक्ष को लेकर हुए युद्ध में देवराज इंद्र को पराजित करने वाले। यह उनके युद्ध कौशल और पराक्रम को दर्शाता है।
  434. मानहर्ता: इंद्र का अहंकार और मान को नष्ट करने वाले। यह उनकी दिव्यता और उच्च आध्यात्मिक शक्ति का सूचक है।
  435. पारिजातापहारी रमेश: पारिजात वृक्ष का हरण करने वाले और लक्ष्मी के प्रिय। यह उनके प्रेम और उनके लिए संपन्न किए गए कर्मों को बताता है।
  436. गृही चामरैः शोभित: गृहस्थाश्रम में निवास करते हुए चामर (पंखा) से सेवित। यह उनके राजसी जीवन और सम्राट के रूप में उनकी शोभा को दर्शाता है।
  437. भीष्मककन्यापति: राजा भीष्मक की पुत्री रुक्मिणी के पति। यह उनके प्रेमपूर्ण और आदर्श वैवाहिक जीवन को दिखाता है।
  438. हास्यकृत्: रुक्मिणी के साथ परिहास (मजाक) करने वाले। यह उनकी हंसमुख प्रवृत्ति और पत्नी के साथ उनके सौम्य व्यवहार को दर्शाता है
  439. मानिनीमानकारी: मानिनी रुक्मिणी को मान देने वाले। यह उनकी सम्मान और संवेदनशीलता को दर्शाता है, विशेष रूप से उनकी पत्नी रुक्मिणी के प्रति।
  440. रुक्मिणीवाक्पटु: रुक्मिणी को अपनी बातों से रिझाने में कुशल। यह उनकी वाकपटुता और संवाद कौशल को प्रकट करता है, विशेष रूप से उनकी प्रिय पत्नी के प्रति।
  441. प्रेमगेह: प्रेम के अधिष्ठान। यह नाम उनके प्रेममयी प्रकृति को दर्शाता है, विशेषकर उनकी करुणा और आत्मीयता के प्रतीक के रूप में।
  442. सतीमोहन: सतियों को भी मोह लेने वाले। इससे उनके अपार आकर्षण और सम्मोहन शक्ति का पता चलता है।
  443. कामदेवापरश्री: दूसरे कामदेव के समान मनोरम सुषमा से संपन्न। इस नाम से उनके अतुलनीय सौन्दर्य और आकर्षण का बोध होता है।
  444. सुदेष्ण: ‘सुदेष्ण’ नामक श्रीकृष्ण-पुत्र। यह नाम श्रीकृष्ण के पुत्र के नाम से संबंधित है।
  445. सुचारु: सुचारु। इससे उनकी निर्दोष और सुन्दर प्रकृति का बोध होता है।
  446. चारुदेष्ण: चारुदेष्ण। यह नाम उनके आकर्षक और मनमोहक प्रकृति को दर्शाता है।
  447. चारुदेह: चारुदेह। यह नाम उनके सुन्दर और आकर्षक शरीर को संकेत करता है।
  448. बली चारुगुप्त: बली, चारुगुप्त। इससे उनकी शक्ति और गुप्त रूप से चारुता का बोध होता है।
  449. सुती भद्रचारु: पुत्रवान् भद्रचारु। यह नाम श्रीकृष्ण के पुत्र भद्रचारु का संदर्भ देता है।
  450. चारुचन्द्र: चारुचन्द्र। यह नाम उनके मनोरम और चाँदनी जैसे शांत स्वभाव को दर्शाता है।
  451. विचारु: – विचारशील, सोच-विचार में निपुण।
  452. चारु: – आकर्षक और सुंदर।
  453. रथीपुत्ररूप: – रथी के पुत्र के समान रूपवान।
  454. सुभानु: – शुभ और मंगलमय अनुकूलता वाले।
  455. प्रभानु: – प्रभा यानी तेजस्वीता से युक्त।
  456. चन्द्रभानु: – चंद्रमा की भांति प्रकाशमान।
  457. बृहद्भानु: – विशाल और महान प्रकाश वाले।
  458. अष्टभानु: – आठ प्रकार की प्रभा वाले।
  459. साम्ब: – सांब, जो एक प्रमुख ऐतिहासिक चरित्र है।
  460. सुमित्र: – अच्छा मित्र, सज्जन सहयोगी।
  461. क्रतु: – यज्ञ या साधना में निपुण।
  462. चित्रकेतु: – चित्रों में केतु के समान प्रभावशाली।
  463. वीर अश्वसेन: – वीर योद्धा अश्वसेन।
  464. वृष: – शक्तिशाली, बलवान।
  465. चित्रगु: – चित्रों या आकृतियों में निपुण।
  466. चंद्रबिम्ब: – चंद्रमा की भांति सुंदर।
  467. विशंकु: – संदेहरहित, निर्भीक।
  468. वसु: – संपत्ति या धन-धान्य से युक्त।
  469. श्रुत: – श्रवणीय, योग्यता और विद्वत्ता में सम्मानित।
  470. भद्र: – शुभ, उत्तम, और कल्याणकारी।
  471. सुबाहु: वृष – उत्तम भुजाओं से संपन्न वृष, जिनकी भुजाएँ शक्तिशाली हैं।
  472. सोम: वर – उत्तम सोम, जिनका संबंध चंद्रमा या सोमरस से है।
  473. शान्ति – शांति, सौम्यता और संयम के प्रतीक।
  474. प्रघोष – प्रखर और गंभीर ध्वनि वाले।
  475. सिंह – सिंह के समान शक्तिशाली और प्रभावशाली।
  476. बल: ऊर्ध्वग – बलवान और ऊंचा उठने वाला, अदम्य शक्ति वाला।
  477. वर्धन – वृद्धि और प्रगति में सहायक।
  478. उन्नाद – उच्च स्वर या ध्वनि में वृद्धि।
  479. महाश – महान और विशाल व्यक्तित्व वाला।
  480. वृक – शिकारी या चतुर।
  481. वृक – दोहराव इसकी महत्ता को बढ़ाता है, विशेषकर चतुराई और युक्तियों में।
  482. पावन – पवित्रता और शुद्धता प्रदान करने वाला।
  483. वन्हिमित्र – अग्नि का मित्र, ऊष्णता या शक्ति से युक्त।
  484. क्षुधि – भूख या क्षुधा का प्रतीक।
  485. हर्षक – आनंद और उल्लास फैलाने वाला।
  486. अनिल – वायु या पवन, गतिशीलता और शीतलता का प्रतीक।
  487. अमित्रजित – शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाला।
  488. सुभद्र – शुभ और लाभदायक।
  489. जय – विजय और सफलता का प्रतीक।
  490. सत्यक – सत्य और धर्म में स्थिर।
  491. वाम: – वाम पक्ष या वाम मार्ग का अनुयायी।
  492. आयु: आयु, यदु: – यदुवंश में जन्मे आयु, जीवन और ऊर्जा से परिपूर्ण।
  493. कोटिश: पुत्रपौत्रे: प्रसिद्ध: – करोड़ों पुत्र-पौत्रों के साथ प्रसिद्ध, अनेक संतानों के पिता।
  494. हली दण्डधृक – ईषादण्डधारी हलधर बलराम, हल और गदा धारण करने वाले।
  495. रुक्महा – रुक्मी का वध करने वाले।
  496. अनिरुद्ध: – किसी भी प्रकार से रोके जाने में असमर्थ।
  497. राजभिर्हास्यग: – अनिरुद्ध के विवाह में राजाओं द्वारा हंसी का पात्र बने।
  498. द्यूतकर्ता – विनोद के लिए जुआ खेलने वाले बलराम।
  499. मधु: – मधुवंश में जन्मे।
  500. ब्रह्मसू: – ब्रह्मा के अवतार अनिरुद्ध।
  501. बाणपुत्रीपति: – बाणासुर की पुत्री ऊषा के पति।
  502. महासुन्दर: – अत्यंत सौंदर्यशाली।
  503. कामपुत्र: – प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध।
  504. बलीश: – बलवानों में श्रेष्ठ।
  505. महादैत्यसंग्रामकृद यादवेश: – बड़े-बड़े दैत्यों के साथ युद्ध करने वाले यादवों के नेता।
  506. पुरीभञ्चन: – बाणासुर के नगर को नष्ट करने वाले।
  507. भूतसंत्रासकारी – भूतों को भयभीत करने वाले।
  508. मृधे रुद्रजित्‌ – युद्ध में रुद्र को परास्त करने वाले।
  509. रुद्रमोही – जृम्भणास्त्र के प्रयोग से रुद्रदेव को मोहित करने वाले
  510. मृधार्थी – युद्ध की इच्छा रखने वाले, युद्ध में सक्रिय भागीदार।
  511. स्कन्दजित – कुमार कार्तिकेय को परास्त करने वाले।
  512. कूपकर्णप्रहारी – धनुष भंग करने में माहिर।
  513. धनुर्भजंन: – धनुष को भंग करने वाले।
  514. बाणमानप्रहारी – बाणासुर के अभिमान को नष्ट करने वाले।
  515. ज्वरोत्पत्तिकृत – ज्वर या बीमारी की उत्पत्ति करने वाले।
  516. ज्वरेण संस्तुत – रुद्र के ज्वर द्वारा स्तुति किए गए।
  517. भुजाछेदकृत – बाणासुर की बाहों को काटने वाले।
  518. बाणसंत्रासकर्ता – बाणासुर को भयभीत करने वाले।
  519. मुडप्रस्तुत: – भगवान शिव द्वारा स्तुतित।
  520. युद्धकृत – युद्ध करने में सक्षम।
  521. भूमिभर्त्ता – भूमंडल के पालनहार या भूदेवी के पति।
  522. नृगं मुक्तिद: – राजा नृग को मोक्ष प्रदान करने वाले।
  523. यादवानां ज्ञानद: – यादवों को ज्ञान प्रदान करने वाले।
  524. रथस्थ: – दिव्य रथ पर आरूढ़, रथ पर विराजमान।
  525. व्रजप्रेमप: – व्रज के प्रति प्रेम के पालक या व्रजवासियों के प्रेमरस का पान करने वाले।
  526. गोपमुख्य: – गोपों में श्रेष्ठ, गोप समुदाय के नेता या अग्रणी।
  527. महासुन्दरीक्रीडित: – अत्यंत सुंदरी स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करने वाले बलराम।
  528. पुष्पमाली – पुष्पमालाओं से सजे, फूलों की माला पहनने वाले।
  529. कलिन्दांगजाभेदन: – यमुना नदी (कलिंदी) के जल को बहने के लिए रास्ता बनाने वाले।
  530. सीरपाणि: – हाथ में हल धारण करने वाले, कृषि कार्य में निपुण।
  531. महादम्भिहा – अहंकारी और दम्भी लोगों का दमन करने वाले।
  532. पौण्ड्रमानप्रहारी – पौण्ड्रक वासुदेव के घमंड को नष्ट करने वाले।
  533. शिरश्छेदक: – सिर काटने वाले, शत्रुओं का नाश करने वाले।
  534. काशिराजप्रणाशी – काशी राज्य के राजा का नाश करने वाले।
  535. महाअक्षौहिणीध्वंसकृत् – विशाल अक्षौहिणी सेनाओं का विनाश करने वाले।
  536. चक्रहस्त: – सुदर्शन चक्र धारण करने वाले, चक्र के स्वामी।
  537. पुरीदीपक: – काशीपुरी को जलाने वाले, नष्ट करने वाले।
  538. राक्षसीनाशकर्ता – राक्षसों का नाश करने वाले।
  539. अनन्त: – अनंत या शेषनाग के रूप में।
  540. महीध्र: – पृथ्वी को धारण करने वाले, स्थिरता प्रदान करने वाले।
  541. फणी – फण (सर्प के फण) धारण करने वाले।
  542. वानरारि: – ‘द्विविद’ नामक वानर के शत्रु, वानरों के दुश्मन।
  543. स्फुरद्गौरवर्ण: – चमकदार गौर वर्ण या उज्ज्वल गोरे रंग वाले।
  544. महापद्मनेत्र: – कमल के समान बड़े और सुंदर नेत्र वाले।
  545. कुरुग्रामतिर्यग्गति: – कौरवों के निवास स्थल हस्तिनापुर को गंगा की ओर खींचने वाले।
  546. गौरवार्थं कौरवै: स्तुत: – कौरवों द्वारा अपने गौरव को प्रकट करने के लिए स्तुतित बलरामजी।
  547. ससाम्ब: पारिबर्ही – साम्ब के साथ कौरवों से दहेज लेकर लौटने वाले।
  548. महावैभवी – महान वैभव वाले, अपार ऐश्वर्यशाली।
  549. द्वारकेश: – द्वारका के स्वामी, द्वारका के राजा।
  550. अनेक: – अनेक रूपों में विद्यमान।
  551. चलन्नारद: – नारद मुनि को विचलित करने वाले।
  552. श्रीप्रभादर्शक: – अपनी श्री (सम्पदा) और प्रभा (वैभव) को प्रदर्शित करने वाले।
  553. महर्षिस्तुत: – महर्षियों द्वारा स्तुतित।
  554. ब्रह्मदेव: – ब्राह्मणों को देवता समझने वाले या ब्रह्मा के पूजक।
  555. पुराण: – पुरातन काल के चरित्र।
  556. सदा षोडशस्त्रीसहस्थित: – सदैव सोलह हजार स्त्रियों के साथ रहने वाले। \
  557. गृही – आदर्श गृहस्थ, पारिवारिक जीवन के आदर्श।
  558. लोकरक्षापर: – समस्त लोकों की रक्षा में समर्पित और सक्रिय।
  559. लोकरीति: – लौकिक रीति-रिवाजों का पालन करने वाले। \
  560. प्रभु: – सम्पूर्ण विश्व के स्वामी, सर्वोच्च नेता।
  561. उग्रसेनावृत: – उग्र और शक्तिशाली सेनाओं से घिरे हुए।
  562. दुर्गयुक्त: – दुर्ग या किलों से सुसज्जित।
  563. राजदूतस्तुत: – जरासंध द्वारा बंदी बनाए गए राजाओं द्वारा भेजे गए दूतों द्वारा स्तुतित।
  564. बन्धभेत्ता स्थित: – बंधनों को तोड़ने वाले और बंदियों को मुक्ति देने वाले।
  565. नारदप्रस्तुत: – नारद मुनि द्वारा प्रशंसित और स्तुतित।
  566. पाण्डवार्थी – पांडवों के हित के लिए कार्य करने वाले।
  567. नृपैर्मन्त्रकृत् – राजाओं के साथ मंत्रणा करने वाले।
  568. उद्धवप्रीतिपूर्ण: – उद्धव की गहरी मित्रता और प्रेम से भरे हुए।
  569. पुत्रपौत्रैर्वृत: – पुत्रों और पोतों से घिरे हुए, पारिवारिक संबंधों से आवृत्त।
  570. कुरुग्रामगन्ता घृणी – कुरुग्राम-इंद्रप्रस्थ में जाने वाले और वहां के प्रति दया रखने वाले।
  571. धर्मराजस्तुत: – धर्मराज युधिष्ठिर द्वारा प्रशंसित और सम्मानित।
  572. भीमयुक्त: – भीमसेन के साथ सहयोग और सम्बंध रखने वाले।
  573. परानन्दद: – परमानंद, उच्चतम सुख और आनंद प्रदान करने वाले।
  574. धर्मजेन मन्त्रकृत् – धर्मराज युधिष्ठिर के साथ विचार-विमर्श करने वाले।
  575. दिशाजित् बली – चारों दिशाओं में विजयी, दिग्विजयी बलवान।
  576. राजसूयार्थकारी – युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के उद्देश्यों को पूरा करने वाले।
  577. जरासंधहा – जरासंध का वध करने वाले।
  578. भीमसेनस्वरूप: – भीमसेन के समान रूप धारण करने वाले।
  579. विप्ररूप: – ब्राह्मण का रूप धारण कर जरासंध के पास जाने वाले।
  580. गदायुद्धकर्ता – भीमरूप में गदायुद्ध करने वाले।
  581. कृपालु: – दयालु, कृपा करने वाले।
  582. महाबंधनछेदकारी – बड़े बंधनों को काटने वाले या महान बंधनों से मुक्ति दिलाने वाले।
  583. नृपै: संस्तुत: – जरासंध के कारागार से मुक्त हुए राजाओं द्वारा प्रशंसित।
  584. धर्मगेहमागत: – धर्मराज के घर आये हुए, धर्मराज के आतिथ्य में आने वाले।
  585. द्विजै: संवृत: – ब्राह्मणों द्वारा घिरे हुए, ब्राह्मणों के संरक्षण में।
  586. यज्ञसम्भारकर्ता – यज्ञ के लिए आवश्यक सभी सामग्री एकत्र करने वाले।
  587. जनै: पूजित: – सभी लोगों द्वारा पूज्य और सम्मानित।
  588. चैद्यदुर्वाक्क्षम: – चेदिराज शिशुपाल के अपशब्दों को क्षमा करने वाले।
  589. महामोक्षद: – महान मोक्ष या उद्धार प्रदान करने वाले।
  590. अरे: शिरश्छेदकारी – शत्रु शिशुपाल का सुदर्शन चक्र से सिर काटने वाले।
  591. महायज्ञशोभाकर: – युधिष्ठिर के महान यज्ञ की शोभा बढ़ाने वाले।
  592. चक्रवर्ती नृपानन्दकारी – राजाओं को आनंदित करने वाले सार्वभौमिक सम्राट।
  593. सुहारी विहारी – सुंदर हार से सजे हुए, विहार करने वाले प्रभु।
  594. सभासंवृत: – सभासदों से घिरे हुए।
  595. कौरवस्य मानहृत् – कुरुराज दुर्योधन का मान हरने वाले।
  596. शाल्वसंहारक: – राजा शाल्व का संहार करने वाले।
  597. यानहन्ता – शाल्व के सौभ विमान को नष्ट करने वाले।
  598. सभोज: – भोजवंशियों के साथ।
  599. वृष्णि: – वृष्णिवंश के सदस्य।
  600. मधु: – मधुवंश के प्रतिनिधि या सदस्य।
  601. शूरसेन: – शूरवीर सेना से जुड़े हुए या शूरसेनवंशी।
  602. दशार्ह: – दशार्ह वंश के सदस्य या प्रतिनिधि।
  603. यदु: अन्धक: – यदु और अन्धक वंशों के एकीकृत प्रतिनिधि।
  604. लोकजित् – विश्व या समाज में विजय प्राप्त करने वाले।
  605. द्युमन्मानहारी – द्युमन का गौरव या अहंकार नष्ट करने वाले।
  606. वर्मधृक – कवच धारण करने वाले, सुरक्षित।
  607. दिव्यशस्त्री – दिव्य अस्त्र-शस्त्र धारण करने वाले।
  608. स्वबोध – आत्म-ज्ञान या आत्मबोध रखने वाले।
  609. सदा रक्षक: – सदैव अच्छे और धर्मात्मा लोगों की रक्षा करने वाले।
  610. दैत्यहन्ता – दैत्यों या असुरों का वध करने वाले।
  611. दन्तवक्त्रप्रणाशी – दन्तवक्त्र का नाश करने वाले।
  612. गदाधृक् – गदा धारण करने वाले।
  613. जगत्तीर्थयात्राकर: – पूरे विश्व की तीर्थ यात्रा करने वाले।
  614. पद्महार: – कमल की माला धारण करने वाले।
  615. कुशी सूतहन्ता – कुश धारण करते हुए रोमहर्षण सूत का वध करने वाले।
  616. कृपाकृत – कृपा या दया करने वाले।
  617. स्मृतीश: – धर्मशास्त्रों या स्मृतियों के स्वामी।
  618. अमल: – निष्कलंक या निर्मल स्वरूप।
  619. बल्वलांगप्रभाखण्डकारी – बल्वल की अंग-कांति को खंडित करने वाले।
  620. भीमदुर्योधनज्ञानदाता – भीम
  621. अपर: – अनुपम और अतुलनीय, जिनसे श्रेष्ठ कोई दूसरा नहीं।
  622. रोहिणीसौख्यद: – माता रोहिणी को सुख और आनंद प्रदान करने वाले।
  623. रेवतीश: – रेवती के पति, रेवती के स्वामी बलराम।
  624. महादानकृत् – विशाल और उदार दान करने वाले।
  625. विप्रदारिद्रयहा – ब्राह्मण सुदामा की दरिद्रता दूर करने वाले।
  626. सदा प्रेमयुक् – हमेशा प्रेम में रत, निरंतर प्रेम भाव रखने वाले।
  627. श्रीसुदाम्न सहाय: – श्री सुदामा के सहायक, उनकी सहायता करने वाले।
  628. सराम: भार्गवक्षेत्रगन्ता: – बलराम के साथ परशुराम के तीर्थस्थान की यात्रा करने वाले।
  629. श्रुते सूर्योपरागे सर्वदर्शी – प्रसिद्ध सूर्यग्रहण के समय सभी से मिलने वाले।
  630. महासेनयास्थित: – विशाल सेना के साथ रहने वाले।
  631. स्नानयुक्त: महादानकृत् – सूर्यग्रहण के दौरान स्नान करके उदारता से दान करने वाले।
  632. मित्रसम्मेलनार्थी – मित्रों के साथ मिलने की इच्छा रखने वाले।
  633. पाण्डवप्रीतिद: – पाण्डवों को प्रीति और समर्थन प्रदान करने वाले।
  634. कुन्तिजार्थी – कुंती और उनके पुत्रों के हित में कार्य करने वाले।
  635. विशालाक्ष मोहप्रद: – विशाल आंखों वाले व्यक्ति को मोहित करने वाले।
  636. शान्‍तिद: – जो शांति प्रदान करते हैं।
  637. सखी कोटिभि: गोपिकाभि: सहवटे राधिकाराधन: – कोटियों सखी रूपी गोपिकाओं के साथ वट वृक्ष के नीचे श्री राधिका की आराधना करने वाले।
  638. राधिका प्राणनाथ: – श्री राधा के जीवन के स्वामी।
  639. सखीमोहदावाग्निहा – सखियों के मोह के रूपी दावाग्नि को नष्ट करने वाले।
  640. वैभवेश: – समृद्धि और वैभव के स्वामी।
  641. स्‍फुरत्‍कोटिकंदर्पलीलाविशेष: – करोड़ों कामदेवों की तुलना में भी अद्वितीय लीलाओं को प्रकट करने वाले।
  642. सखीराधिकादु:खनाशी – सखियों के साथ श्री राधा के दुःख का नाश करने वाले।
  643. विलासी – विलास में लीन और खुशी फैलाने वाले।
  644. सखी मध्यग: – सखियों के मध्य में विराजमान।
  645. शापहा – शाप को दूर करने वाले।
  646. माधवीश: – माधवी (राधा) के स्वामी।
  647. शंत वर्षविक्षेपहृत् – सौ वर्षों के वियोग की व्यथा को हरने वाले।
  648. नन्‍दपुत्र: – नन्द के पुत्र।
  649. नन्‍दवक्षोगत: – नन्द की गोद में बैठने वाले।
  650. शीतलांग: – जिनका शरीर शीतल और सुखदायी है।
  651. यशोदाशुच: स्नानकृत्‌ – यशोदा के प्रेमाश्रुओं से स्नान करने वाले।
  652. दु:खहन्‍ता – दुखों का नाश करने वाले।
  653. सदा गोपिकानेत्रलग्न: व्रजेश: – गोपिकाओं के नेत्रों में सदैव बसने वाले व्रज के इश्वर।
  654. देवकीरोहिणीभ्‍यां स्‍तुत: – देवकी और रोहिणी द्वारा स्तुति प्राप्त करने वाले।
  655. सुरेन्‍द्र: – देवताओं के इंद्र, स्वामी।
  656. रहो गोपिकाज्ञानद: – एकांत में गोपिकाओं को ज्ञान देने वाले।
  657. मानद: – मान देने वाले या मान का भंग करने वाले।
  658. पट्टराज्ञीभि: आरात् संस्‍तुत: धनी – पट्टरानियों (रानियों) द्वारा निकट और दूर से स्तुति प्राप्त, अत्यंत धनी।
  659. सदा लक्ष्मणाप्राणनाथ: – सदैव लक्ष्मणा (रानी) के प्राणनाथ।
  660. सदा षोडशस्त्रीसहस्त्रस्तुतांग: – सोलह हजार स्त्रियों द्वारा जिनके अंगों की सदा स्तुति की गई।
  661. शुक: – शुकमुनि के समान या उनके रूप में।
  662. व्‍यासदेव: – व्यासदेव के रूप में, इसी प्रकार अन्य ऋषियों के रूप में भी प्रकट।
  663. सुमन्‍तु: – सुमन्तु नामक ऋषि या मुनि के रूप में।
  664. सित: – सित नामक ऋषि या मुनि के रूप में।
  665. भरद्वाजक: – भरद्वाज मुनि के रूप में।
  666. गौतम: – गौतम मुनि के रूप में।
  667. आसुरि: – आसुरि नामक ऋषि के रूप में।
  668. सद्वसिष्‍ठ: – श्रेष्ठ वसिष्ठ मुनि के रूप में।
  669. शतानन्‍द: – शतानंद नामक मुनि के रूप में।
  670. आद्य: राम: – आद्य राम, परशुराम के रूप में।
  671. पर्वतो मुनि: – पर्वतमुनि के रूप में।
  672. नारद: – नारदमुनि के रूप में।
  673. धौम्‍य: – धौम्यमुनि के रूप में।
  674. इन्‍द्र – इन्द्रमुनि के रूप में।
  675. असित: – असित मुनि के रूप में।
  676. अत्रि: – अत्रि मुनि के रूप में।
  677. विभाण्‍ड: – विभांड नामक ऋषि के रूप में।
  678. प्रचेता: – प्रचेता नामक मुनि के रूप में।
  679. कृप: – कृप नामक ऋषि के रूप में।
  680. कुमार: – सनत्कुमार नामक ऋषि के रूप में।
  681. सनन्‍द: – सनंदन नामक ऋषि के रूप में।
  682. याज्ञवल्‍क्‍य: – याज्ञवल्क्य ऋषि के रूप में।
  683. ऋभु: – ऋभु नामक ऋषि के रूप में।
  684. अंगिरा: – अंगिरा मुनि के रूप में।
  685. देवल: – देवल नामक मुनि के रूप में।
  686. श्रीमृकण्‍ड: – श्रीमृकण्ड नामक ऋषि के रूप में।
  687. मरीचि: – मरीचि ऋषि के रूप में।
  688. क्रतु: – क्रतु नामक ऋषि के रूप में।
  689. और्वक: – और्व मुनि के रूप में।
  690. लोमश: – लोमश नामक ऋषि के रूप में।
  691. पुलस्‍त्‍य: – पुलस्त्य ऋषि के रूप में।
  692. भृगु: – भृगु ऋषि के रूप में।
  693. ब्रह्मारात: वसिष्‍ठ: – ब्रह्मरात वसिष्ठ ऋषि के रूप में।
  694. नर: नारायण: – नर-नारायण ऋषि के रूप में।
  695. दत्त: – दत्तात्रेय अवतार के रूप में।
  696. पाणिनि: – व्याकरण-सूत्रकार पाणिनि के रूप में।
  697. पिंगल: – छन्दस्सूत्रकार महर्षि पिंगल के रूप में।
  698. भाष्‍यकार: – महाभाष्यकार पिंजलि के रूप में।
  699. कात्‍यायन: – वार्तिककार कात्यायन के रूप में।
  700. विप्रपातंजलि: – ब्राह्मण पतंजलि, योगसूत्र के रचयिता के रूप में।
  701. गर्ग: – यदुकुल के प्रमुख और ज्ञानी।
  702. गुरु: – बृहस्पति, देवताओं के गुरु और विद्वान।
  703. गीष्पति: – वाचस्पति बृहस्पति, वाणी और ज्ञान के स्वामी।
  704. गौतमीश: – ऋषि गौतम के स्वामी, गौतमी नदी से संबंधित।
  705. मुनि: जाजलि: – महर्षि जाजलि, उच्च कोटि के साधक।
  706. कश्यप: – महर्षि कश्यप, देवताओं और दैत्यों के पिता।
  707. गालव: – ऋषि गालव, प्रसिद्ध तपस्वी।
  708. द्विज: सौभरि: – ब्रह्मर्षि सौभरि, वेद और विद्या में निपुण।
  709. ऋष्यश्रृंग: – ऋषि ऋष्यश्रृंग, पवित्र और तपस्वी।
  710. कण्व: – ऋषि कण्व, विद्या और ज्ञान में पारंगत।
  711. द्वित: – द्वित, द्वैत विचारधारा के प्रतिनिधि।
  712. जातूद्भव: – जातूकर्ण्य, प्रसिद्ध ऋषि।
  713. एकत: – एकत, एकात्मता या एकाग्रता का प्रतीक।
  714. घन: – घन, गहनता और गहराई से संबंधित।
  715. कर्दमस्य-आत्मज: – कर्दम ऋषि के पुत्र कपिल, सांख्य दर्शन के प्रवर्तक।
  716. कर्दम: – महर्षि कर्दम, प्राचीन ऋषि और साधक।
  717. भार्गव: – भृगुपुत्र च्यवन, ऋषि च्यवन का उल्लेख।
  718. कौत्स्य: – पवित्र ऋषि कौत्स, अध्यात्म और तपस्या में निष्णात।
  719. आरुणि: – ऋषि आरुणि, तपस्वी और ज्ञानी।
  720. शुचि: पिप्पलाद: – पवित्र ऋषि पिप्पलाद, वेद और शास्त्रों के ज्ञाता
  721. मृकण्डस्य पुत्र: – मार्कण्डेय, मृकण्ड ऋषि के पुत्र।
  722. पैल: – वेदों के विद्वान पैल ऋषि।
  723. जैमिनि: – प्रसिद्ध ऋषि जैमिनि।
  724. सत् सुमन्तु: – सत्सुमन्तु, पवित्र और सत्यनिष्ठ ऋषि।
  725. वरो गांगल – उत्कृष्ट गांगल मुनि, गांगा नदी से संबंधित।
  726. स्फोटगेह: फलाद – फल खाने वाले स्फोटगेह ऋषि।
  727. सदापूजित: ब्राह्मण: – निरंतर पूजित ब्राह्मण स्वरूप।
  728. सर्वरूपी: – सभी प्रकार के रूप धारण करने वाले।
  729. महामोहनाश: मुनीश: – महान मोह या भ्रांति को नष्ट करने वाले मुनिश्रेष्ठ।
  730. प्रागमर: – पूर्व काल में देवताओं में विद्यमान, उपेन्द्र अवतार के रूप में।
  731. मुनीशस्तुत: – महर्षियों द्वारा प्रशंसित।
  732. शौरिविज्ञानदाता – वसुदेव (शौरि) को ज्ञान देने वाले।
  733. महायज्ञकृत् – विशाल और महत्वपूर्ण यज्ञ करने वाले।
  734. आभृथस्नानपूज्य: – यज्ञ के अंत में किए जाने वाले आभृथ स्नान में पूज्य।
  735. सदादक्षिणाद: – हमेशा दक्षिणा देने वाले।
  736. नृपै: पारिबर्ही – राजाओं से उपहार स्वीकार करने वाले।
  737. व्रजानन्दद: – वज्र को आनंद प्रदान करने वाले।
  738. द्वाराकागेहदर्शी – द्वारकापुरी के भवनों को देखने वाले।
  739. महाज्ञानद: – महान ज्ञान प्रदान करने वाले।
  740. देवकीपुत्रद: – देवकी को उनके मृत पुत्रों को पुनर्जीवित करके वापस लाने वाले।
  741. असुरै: पूजित: – असुरों द्वारा पूजे जाने वाले।
  742. इन्द्रसेनादृत: – इंद्र के सेनापति बलि द्वारा सम्मानित।
  743. सदाफाल्गुनप्रीतिकृत् – अर्जुन से हमेशा प्रेम रखने वाले।
  744. सत्सुभद्राविवाहे द्विपाश्रवप्रद: – सुभद्रा के विवाह में उपहार के रूप में हाथियों और घोड़ों को देने वाले।
  745. मानयान: – सम्मान युक्त वाहन उपहार में देने वाले।
  746. भुवं दर्शक: – पृथ्वी को दर्शाने वाले, पृथ्वी के दर्शन कराने वाले।
  747. मैथिलेन प्रयुक्त: – मिथिला के राजा और ब्राह्मण द्वारा दर्शन के लिए प्रार्थित।
  748. आशु ब्राह्मणै: सह राजा स्थित: ब्राह्मणैश्च स्थित: – तुरंत ही राजा और ब्राह्मण के साथ उपस्थित होने वाले।
  749. मैथिले कृती – मैथिल राजा और ब्राह्मण के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करने वाले।
  750. लोकवेदोपदेशी – लोक (समाज) और वेदों के शिक्षा और उपदेश देने वाले।
  751. सदा वेदवाक्यै: स्तुत: – हमेशा वेदों के वचनों द्वारा स्तुतित।
  752. शेषशायी – शेषनाग पर शयन करने वाले।
  753. अमरेषु ब्राह्मणै: परीक्षावृत: – अमर ब्राह्मणों (भृगु आदि) द्वारा परीक्षा लिए जाने पर सर्वश्रेष्ठ सिद्ध हुए।
  754. भृगुप्रार्थित: – भृगु ऋषि द्वारा प्रार्थित।
  755. दैत्यहा – दैत्यों का नाश करने वाले।
  756. ईशरक्षी – शिवजी की रक्षा करने वाले (भस्मासुर से)।
  757. अर्जुनस्य सखा – अर्जुन के मित्र।
  758. अर्जुनस्यापि मानप्रहारी – अर्जुन का भी अभिमान भंग करने वाले।
  759. विप्रपुत्रप्रद: – ब्राह्मण को पुत्र प्रदान करने वाले।
  760. धामगन्ता – अपने दिव्य धाम में जाने वाले।
  761. माधवीभिर्विहारस्थित: – माधवी अर्थात मधुकुल की स्त्रियों के साथ विहार करने वाले।
  762. कलांग – जिनके अंगों में कला का वास है।
  763. महामोहदावाग्निदग्धाभिराम: – महान मोह या आकर्षण के दावानल से दग्ध या प्रभावित करने वाले।
  764. यदु: उग्रसेन: नृप: – यदुवंशी, उग्रसेन और नृपति।
  765. अक्रूर – अक्रूरता से रहित, करुणामय।
  766. उद्धव: – उद्धव, उत्साह और उत्सवमय।
  767. शूरसेन: – शूरसेन या वीर सैनिक।
  768. शूर: – वीर या शूरवीर।
  769. हृदीक: – कृतवर्मा के पिता हृदीक।
  770. सत्राजित: – सत्राजित, प्रसिद्ध और यशस
  771. अप्रमेय: – प्रमाण से परे, अमाप्य।
  772. गद: – बलरामजी के छोटे भाई गद।
  773. सारण: – सारण, एक महत्वपूर्ण व्यक्तित्व।
  774. सात्यिक – सत्यकी के पुत्र।
  775. देवभाग: – देवभाग, एक प्रसिद्ध व्यक्ति।
  776. मानस: – मानस, विचारशील और ज्ञानी।
  777. संजय: – संजय, महाभारत में वर्णित।
  778. श्यामक: – श्यामक, एक विशिष्ट चरित्र।
  779. वृक: – वृक, महत्वपूर्ण व्यक्ति।
  780. वत्सक: – वत्सक, एक प्रमुख नाम।
  781. देवक: – देवक, एक विशेष व्यक्तित्व।
  782. भद्रसेन: – भद्रसेन, एक महत्वपूर्ण चरित्र।
  783. नृप अजातशत्रु: – राजा युधिष्ठिर, जो अजातशत्रु (बिना शत्रु के) के नाम से प्रसिद्ध हैं।
  784. जय: – जय (अर्जुन), विजयी और शूरवीर।
  785. माद्रीपुत्र: – नकुल और सहदेव, माद्री के पुत्र।
  786. भीष्म: – दुर्योधन आदि के पितामह देवव्रत (भीष्म)।
  787. कृप: – कृपाचार्य, एक महान गुरु।
  788. बुद्धिचक्षु: – प्रज्ञाचक्षु धृतराष्ट्र, बुद्धिमत्ता से युक्त।
  789. पाण्डु: – पांडवों के पिता राजा पाण्डु।
  790. शांतनु: – भीष्म के पिता राजा शांतनु।
  791. देवो बाल्हीक: – दिव्य स्वरूप वाले बाल्हीक।
  792. भूरिश्रवा: – यशस्वी और वीर भूरिश्रवा।
  793. चित्रवीर्य: – असाधारण वीरता वाले चित्रवीर्य।
  794. विचित्र: – अद्भुत और अनोखे स्वरूप वाले विचित्र या चित्रांगद।
  795. शल: – प्रमुख और महत्वपूर्ण योद्धा शल।
  796. दुर्योधन: – युद्ध करने में कठिन, राजा दुर्योधन।
  797. कर्ण: – वीर और दानवीर कर्ण।
  798. सुभद्रासुत: – सुभद्रा के पुत्र, अभिमन्यु।
  799. प्रसिद्ध: विष्णुरात: – भगवान श्रीकृष्ण द्वारा जीवनदान प्राप्त विख्यात राजा परीक्षित।
  800. जनमेजय: – परीक्षित के पुत्र, राजा जनमेजय।
  801. पाण्डव: – पांच पांडव भाई।
  802. कौरव: – कुरुवंश के क्षत्रिय।
  803. सर्वतेजा: हरि: – समस्त तेजस्विता से संपन्न, हृदय को आकर्षित करने वाले श्रीकृष्ण।
  804. सर्वरूपी – सभी प्रकार के रूप धारण करने वाले।
  805. राधया व्रजं ह्रागत: – श्रीराधा के साथ व्रज में अवतरित।
  806. पूर्णदेव: – पूर्ण और सर्वोच्च परमात्मा।
  807. वर: – सबसे श्रेष्ठ और उत्कृष्ट।
  808. रासलीलापर: – रासलीला में तत्पर और लीन।
  809. दिव्यरूपी – दिव्य और आकर्षक रूप वाले।
  810. रथस्थ: – रथ पर विराजमान, रथ पर स्थित।
  811. नवद्वीपखण्डप्रदर्शी – जम्बूद्वीप के नौ खंडों को दर्शाने वाले।
  812. महामानद: – अत्यधिक सम्मान देने वाले या गर्व का नाश करने वाले।
  813. विश्‍वरूप: – पूरे विश्व के रूप में प्रकट होने वाले।
  814. सनन्‍द: – सनंद नामक व्यक्तित्व के रूप में।
  815. नन्‍द: – नंद बाबा के रूप में।
  816. वृष: – वृषभानु के रूप में।
  817. वल्‍लवेश: – गोपों के स्वामी, गोपेश्वर के रूप में।
  818. सुदामा – ‘श्रीदामा’ नामक गोप के रूप में।
  819. अर्जुन: – अर्जुन नामक गोप के रूप में।
  820. सौबल: – सुबल नामक गोप के रूप में।
  821. सकृष्‍ण: स्‍तोक: – ‘स्तोककृष्ण’ नामक गोप के रूप में।
  822. अंकुश: – अंकुश नामक गोप के रूप में।
  823. सद्विशालर्षभाख्‍य: – विशाल और ऋषभ नामक दो गोप सखाओं के रूप में।
  824. सुतेजस्‍विक: – अत्यधिक तेजस्वी।
  825. कृष्णमित्रो वरूथ: – श्रीकृष्ण के मित्र वरूथ के रूप में।
  826. कुशेश: – कुशेश्वर के रूप में।
  827. वनेश: – वनों के स्वामी।
  828. वृन्‍दावनेश: – वृंदावन के ईश्वर।
  829. माथुरेशाधिप: – मथुरा मंडल के राजाधिराज।
  830. सदा गोगण: – सदैव गायों के समूह के साथ रहने वाले।
  831. गोपति: – गोपों के स्वामी या गोस्वामी।
  832. गोपिकाकेश: – गोपियों के प्रिय या गोपियों के वल्लभ।
  833. गोवर्धन: – गायों की वृद्धि करने वाले; गोवर्धन पर्वत उठाने वाले या गोवर्धन नामक गोप।
  834. गोपति: – गायों के पालक।
  835. कन्‍यकेश: – गोप-किशोरियों के प्रिय।
  836. अनादि: – जिनका कोई आदि (शुरुआत) नहीं है, सनातन।
  837. आत्‍मा: – अंतर्यामी परमात्मा।
  838. हरि: – श्याम वर्ण वाले श्रीकृष्ण।
  839. पर: पुरुष: – परम पुरुष, सर्वोच्च दिव्य सत्ता।
  840. निर्गुण: – प्राकृतिक गुणों से अतीत।
  841. ज्‍योतिरूप: – ज्योतिर्मय या प्रकाश स्वरूप।
  842. निरीह: – इच्छा या कामना से रहित।
  843. सदा निर्विकार: – सदैव विकार से मुक्त।
  844. प्रपंचात्‍पर: – भौतिक जगत से परे।
  845. ससत्‍य: – सत्य गुण से युक्त, या सत्यभामा के साथ संयुक्त।
  846. पूर्ण: – परिपूर्ण, सम्पूर्ण।
  847. परेश: – परमेश्वर।
  848. सूक्ष्‍म: – सूक्ष्म स्वरूप, अति सूक्ष्म रूप में विद्यमान।
  849. द्वारकायां नृपेण अश्‍वमेधस्‍य कर्ता – द्वारका में राजा उग्रसेन के द्वारा अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान करने वाले।
  850. अपि पौत्रेण भूभारहर्ता – पुत्र और पौत्र के सहयोग से पृथ्वी का भार हटाने वाले।
  851. पुन: श्रीव्रजे राधया रासरंगस्‍य कर्ता हरि: – फिर से वृज में श्रीराधा के साथ रासलीला करने वाले श्रीहरि।
  852. गोपिकानां च भर्ता – श्रीराधा और अन्य गोपियों के पति।
  853. सदैक: – सदैव एक और अद्वितीय।
  854. अनेक: – अनेक रूपों में प्रकट होने वाले।
  855. प्रभापूरितांग: – प्रकाश से परिपूर्ण अंग वाले।
  856. योगमायाकार: – योगमाया के रूप में।
  857. कालजित् – काल को जीतने वाले।
  858. सुदृष्‍टि: – उत्कृष्ट दृष्टि वाले।
  859. महत्तत्त्वरूप: – महत्तत्त्व के स्वरूप।
  860. प्रजात: – उत्कृष्ट अवतारधारी।
  861. कूटस्‍थ: – निर्विकार।
  862. आद्यांकुर: – विश्ववृक्ष का प्रथम अंकुर, ब्रह्मा।
  863. वृक्षरूप: – विश्ववृक्ष के रूप में।
  864. विकारस्‍थित: – विकारों में भी कारणरूप में विद्यमान।
  865. विकारस्‍थित: – विकारों (कार्यों) में भी कारणरूप से विद्यमान।
  866. वैकारिकस्‍तैजस्‍तामसक्ष्‍च अहंकार: – वैकारिक, तेजस और तामस अहंकार के रूप में।
  867. नभ: – आकाशस्वरूप।
  868. दिक् – दिशास्वरूप।
  869. समीर: – वायुरूप।
  870. सूर्य: – सूर्यस्वरूप।
  871. प्रचेतोश्र्विवन्‍हि: – वरुण, अश्विनीकुमार और अग्निस्वरूप।
  872. शक्र: – इंद्र।
  873. उपेन्‍द्र: – भगवान वामन।
  874. मित्र: – मित्रदेवता।
  875. श्रुति: – श्रवणेंद्रिय।
  876. त्‍वक् – त्वचाइंद्रिय।
  877. दृक् – नेत्रेंद्रिय।
  878. घ्राण: – नासिकेंद्रिय।
  879. जिह्वा – रसनेंद्रिय।
  880. गिर: – वागिंद्रिय।
  881. भुजा – हस्तस्वरूप।
  882. मेढरक: – जननेंद्रियरूप।
  883. पायु: – ‘पायु’ नामक कर्मेंद्रिय (गुदा) रूप।
  884. गघ्रि: – ‘चरण’ नामक कर्मेंद्रियरूप।
  885. सचेष्‍ट: – चेष्टाशील।
  886. धरा – पृथ्वी या धरती के रूप में।
  887. व्‍योम – आकाश के रूप में।
  888. वा: – जल के रूप में।
  889. मारुत: – वायु या हवा के रूप में।
  890. तेज: – अग्नि या तेज के रूप में।
  891. रूपम् – रूप के रूप में।
  892. रस: – रस के रूप में।
  893. गन्‍ध: – गंध के रूप में।
  894. शब्‍द: – शब्द के रूप में।
  895. स्‍पर्श: – स्पर्श या संवेदना के रूप में।
  896. सचित्त: – चित्त या मन के साथ।
  897. बुद्धि: – बुद्धि या विवेक के रूप में।
  898. विराट् – विशाल या विराट स्वरूप में।
  899. कालरूप: – काल या समय के रूप में।
  900. वासुदेव: – सर्वव्यापी और सर्वोच्च भगवान के रूप में।
  901. जगत्‍कृत् – संसार के सृष्टा।
  902. अण्‍डेशयान: – ब्रह्मांड के गर्भ में शयन करने वाले ब्रह्माजी।
  903. सशेष: – शेषनाग के साथ रहने वाले, शेषशय्याशायी।
  904. सहस्‍त्रस्‍वरूप: – हजारों स्वरूप धारण करने वाले।
  905. रमानाथ: – लक्ष्मी के पति।
  906. आद्योवतार: – ब्रह्मा रूप में प्रथम अवतार।
  907. सदा सर्गकृत् – विधाता के रूप में सदैव सृष्टि करने वाले।
  908. पद्मज: – कमल से उत्पन्न ब्रह्मा।
  909. कर्मकर्ता – निरंतर कर्म करने वाले।
  910. नाभिपद्मोद्भव: – नारायण के नाभिकमल से प्रकट ब्रह्मा।
  911. दिव्‍यवर्ण: – दिव्य कांति से संपन्न।
  912. कवि: – त्रिकालदर्शी या विश्वरूप काव्य के निर्माता आदि कवि।
  913. लोककृत् – जगत के सृष्टा।
  914. कालकृत् – काल के निर्माता।
  915. सूर्यरूप: – सूर्य के स्वरूप में।
  916. अनिमेष: – जिन्हें पलक झपकने की आवश्यकता न हो।
  917. अभव: – जन्मरहित या अनादि।
  918. वत्‍सरान्‍त: – वर्ष के समापन या अवसान के रूप में।
  919. महीयान् – महानता के सर्वोच्च रूप में।
  920. तिथि: – तिथि या हिंदू कैलेंडर के दिन के रूप में।
  921. वार: – सप्ताह के दिनों के रूप में।
  922. नक्षत्रम् – नक्षत्रों के रूप में।
  923. योग: – योग या ज्योतिषीय संयोगों के रूप में।
  924. लग्‍न: – ज्योतिषीय लग्न के रूप में।
  925. मास: – महीने के रूप में।
  926. घटी – अर्धमुहूर्त या लघु समयांतराल के रूप में।
  927. क्षण: – क्षण या पल के रूप में।
  928. काष्‍ठिका: – काष्ठा या संक्षिप्त समय इकाई के रूप में।
  929. मुहूर्त: – दो घड़ी या एक मुहूर्त के समय के रूप में।
  930. याम: – प्रहर या चार घण्टे के समय अवधि के रूप में।
  931. ग्रहा: – ग्रहों के रूप में।
  932. यामिनी – रात्रि के रूप में।
  933. दिनम् – दिन के रूप में।
  934. ऋक्षमालागत: – नक्षत्रमाला में गमन करने वाले ग्रहों के रूप में।
  935. देवपुत्र: – वसुदेवनंदन के रूप में।
  936. कृत: – सत्ययुग के रूप में।
  937. त्रेयता: – त्रेतायुग के रूप में।
  938. द्वापर: – द्वापरयुग के रूप में।
  939. असौकलि: – कलियुग के रूप में।
  940. युगानां सहस्‍त्रम् – चतुर्युगी (चार युगों का एक समूह) के सहस्र संख्या में।
  941. मन्‍वन्‍तरम् – मन्वन्तर के रूप में।
  942. लय: – संहार के रूप में।
  943. पालनम् – पालन के कार्य के रूप में।
  944. सत्‍कृति: – उत्तम सृष्टि के रूप में।
  945. परार्द्धम् – परार्द्ध काल के रूप में।
  946. सदोत्पत्तिकृत्‌ – सदैव सृष्टि करने वाले।
  947. द्वयक्षर: ब्रह्मरूप: – दो अक्षर ‘कृष्ण’ नामक ब्रह्मास्वरूप।
  948. रुद्रसर्ग: – रुद्र के सर्जन के रूप में।
  949. कौमारसर्ग: – कुमार (संतान) के सर्जन के रूप में।
  950. मुने: सर्गकृत् – मुनियों के सर्जन के कर्ता।
  951. देवकृत् – देवों के सृष्टा।
  952. प्राकृत: – प्राकृतिक सृष्टि के रूप में।
  953. श्रुति: – वेद के रूप में।
  954. स्‍मृति: – धर्मशास्त्र के रूप में।
  955. स्‍तात्रम् – स्तुति या प्रशंसा के रूप में।
  956. पुराणम् – पुराणों के रूप में।
  957. धनुर्वेद: – धनुर्वेद के रूप में।
  958. इज्‍या – यज्ञ के रूप में।
  959. गान्‍धर्ववेद: – संगीत शास्त्र के रूप में।
  960. विधाता – सृष्टा, ब्रह्मा के रूप में।
  961. नारायण: – विष्णु के रूप में।
  962. सनत्‍कुमार: – सनत्कुमार और अन्य महर्षियों के रूप में।
  963. वराह: / नारद: – वराह अवतार और देवर्षि नारद के रूप में।
  964. धर्मपुत्र: – धर्म के पुत्र, नर-नारायण आदि के रूप में।
  965. मुनि: कर्दमस्यात्मज: – कर्दम मुनि के पुत्र कपिल मुनि के रूप में।
  966. सयज्ञो दत्त: – यज्ञस्वरूप और दत्तात्रेय के रूप में।
  967. अमरो नाभिज: – अविनाशी ऋषभदेव के रूप में।
  968. श्रीपृथु: – श्रीमान राजा पृथु के रूप में।
  969. सुमत्‍स्‍य: – सुंदर मत्स्य अवतार के रूप में।
  970. कूर्म: – कच्छप या कूर्म अवतार के रूप में।
  971. अनिमेष: – जिनकी पलकें नहीं झपकतीं।
  972. अभव: – जन्मरहित, अनादि।
  973. वत्‍सरान्‍त: – वर्ष का अंत, समय के चक्र में।
  974. महीयान् – सबसे महान।
  975. तिथि: – तिथि के रूप में।
  976. वार: – सप्ताह के दिनों के रूप में।
  977. नक्षत्रम् – नक्षत्रों के रूप में।
  978. योग: – योग के रूप में।
  979. लग्‍न: – लग्न के रूप में।
  980. मास: – महीने के रूप में।
  981. घटी – समय के एक इकाई के रूप में।
  982. क्षण: – क्षण के रूप में।
  983. काष्‍ठिका: – समय की छोटी इकाई।
  984. मुहूर्त: – मुहूर्त के रूप में।
  985. याम: – प्रहर के रूप में।
  986. ग्रहा: – ग्रहों के रूप में।
  987. यामिनी – रात्रि के रूप में।
  988. दिनम् – दिन के रूप में।
  989. ऋक्षमालागत: – नक्षत्रमाला में गमन करने वाले।
  990. देवपुत्र: – देवकी के पुत्र।
  991. कृत: – सत्ययुग के रूप में।
  992. त्रेयता: – त्रेतायुग के रूप में।
  993. द्वापर: – द्वापरयुग के रूप में।
  994. असौकलि: – कलियुग के रूप में।
  995. युगानां सहस्‍त्रम् – सहस्र युगों के रूप में।
  996. मन्‍वन्‍तरम् – मन्वन्तर के रूप में।
  997. लय: – प्रलय या संहार के रूप में।
  998. पालनम् – पालनकर्ता के रूप में।
  999. स्थावरो जंगम: – निश्चल (स्थावर) और गतिशील (जंगम) सभी चीजों के रूप में।
  1000. अल्पं च महत्‌ – छोटे से लेकर महान तक, सभी चीजों के रूप में।

श्री कृष्ण के इन हज़ार नामों के माध्यम से हमें उनके अनेकानेक गुणों, दिव्य लीलाओं और अद्भुत स्वरूप की झलक मिलती है। हर एक नाम का अपना एक विशेष अर्थ और महत्व है जो हमें उनकी विशालता और परिपूर्णता का दर्शन कराता है। इन नामों में निहित अर्थों का चिंतन करना न सिर्फ एक आध्यात्मिक यात्रा है, बल्कि यह हमारे भीतर शांति और संतुष्टि का अनुभव भी कराता है। इस ज्ञान के माध्यम से, जो एक समर्थ दिव्य शक्ति के विभिन्न रूपों को दर्शाता है, हम आध्यात्मिक जागरूकता और आत्म-निर्देशन की ओर प्रेरित होते हैं। इस प्रकार श्री कृष्ण के इन नामों का अभ्यास और अनुसंधान हमें उनकी विशाल करुणा और उदारता से परिचित कराता है, जो हमें जीवन की सच्ची समृद्धि और आनंद का पथ प्रशस्त करता है।

 

श्री कृष्ण के नाम से संबंधित प्रश्नोत्तरी

Q: क्या श्री कृष्ण के 1000 नाम सच में अलग-अलग अर्थ रखते हैं?

A: हां, प्रत्येक नाम का अपना एक विशेष अर्थ और महत्व होता है, जो श्री कृष्ण के विभिन्न गुणों, लीलाओं और दिव्यताओं को प्रकट करता है।

Q: क्या श्री कृष्ण के इन 1000 नामों का जाप करने से कोई लाभ होता है?

A: हां, इन नामों का जाप करने से भक्ति और आध्यात्मिक शांति मिलती है, साथ ही यह मन और आत्मा को भी संतुष्ट करता है।

Q: श्री कृष्ण के 1000 नामों में सबसे प्रसिद्ध नाम कौन सा है?

A: ‘गोविंद’, ‘मुरलीधर’, ‘यशोदा नंदन’ जैसे नाम बहुत प्रसिद्ध हैं।

Q: क्या इन नामों को रोज जपना चाहिए?

A: हां, नियमित रूप से इन नामों का जाप करने से आत्मिक शांति और भक्ति का अनुभव होता है।

Q: क्या श्री कृष्ण के 1000 नामों का पाठ करने का कोई विशेष समय होता है?

A: भले ही इन नामों का जाप किसी भी समय किया जा सकता है, फिर भी प्रातःकाल और संध्याकाल को विशेष रूप से शुभ माना जाता है।

Q: क्या इन नामों का पाठ घर पर कर सकते हैं?

A: हां, आप इन नामों का पाठ घर पर, मंदिर में या किसी भी शांत स्थान पर कर सकते हैं।

 

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